ग़ज़ल
तू ग़म न कर तेरे रहेंगे हम सदा के लिए
ये और बात है तरसे हैं हम वफा के लिए ।
न तेरी मर्ज़ी थी ना मेरा इरादा था कोई
किसे इल्ज़ाम दें चाहत की खता के लिए ।
कोई भी मन में अपने मलाल मत रखना
हम हैं तैयार मोहब्बत की सजा के लिए।
तू जैसा भी है वैसा ही कुबूल है हमको
मिटा दूं खुद को भी मैं तेरी अदा के लिए।
तुझे बेचैनियां न हासिल हों ये मांगा है
उठे हैं हाथ ये जब भी मेरे दुआ के लिए।
वक्त की शय है ये हालात बदल जाएंगे
न हार हौसला ऐ दिल तू यूं खुदा के लिए।
हुआ कसूर जानिब जो दर्द यहाँ कह बैठे
माफ़ कर देना मुझे इतनी सी जफा के लिए।
— पावनी दीक्षित “जानिब”