यादें बचपन की
तनहाई में चली आतीं हैं
मीठी यादें बचपन की ।
प्यार से भरे उस जीवन की
रस घोलती अविरत सरगम की ।
थे हम साथ साथ तब खेला करते
उड़ते तितली बन मस्त उपवन की ।
कहीं नहीं थी झंझट कोई
बस एक बंधन थी अपनेपन की ।
वो भी क्या दिन थें खूब
जब पत्तों की थी पूरियां छनती ।
मिट्टी के थे बनते लड्डू
और हर दिन होली-दिवाली मनती ।
झगड़ते थें हम आपस में
फिर खुद ही मान जाते थे ।
साथ बैठकर खाते खाना
और हर बात पे मुस्कुराते थे ।
गुब्बारों में थीं खुशीयां दिखती
उत्सवों के रंग में हम खो जाते थें ।
सब एक जैसे कपड़े पहन कर
एक अनोखा परिवार बन जाते थें ।
पर चुरा लिया समय ने
हम सबका वो बचपन प्यारा ।
बस यादें बनकर सिमट गईं हैं
जो जीवन का पल था न्यारा ।
अब तो वो तन्हाईयों में आतीं हैं
हौले से ये दिल धड़काने ।
कुछ हासिल करने की भागदौड़ में
असल जीवन का सार बताने ।
मुकेश सिंह
सिलापथार,असम
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