ग़ज़ल
राहें जुदा हुई जो अब गुज़र हो कैसे।
ताउम्र रहे तड़पते अब बसर हो कैसे।
तुम बिन जीने की आदत सी हो गई है;
पाया तुम्हे सामने अब नज़र हो कैसे।
मुलाकातों का अब दौर न शुरु हो यूं;
यादों के पन्ने खोल के सहर हो कैसे।
रहनुमा न रहे बनके तुम जब तो कह दो;
ख्वाबों में भी तुम्हारा वो शहर हो कैसे।
“कामनी” यह ख्वाहिशें थमी रहने दो यूंही;
इन को संग लेकर कहो अब खबर हो कैसे।
कामनी गुप्ता***
जम्मू !