ग़ज़ल
बिन तेरे जिंदगी में’ पहरेदार भी नहीं
दुनिया में’ अब किसी से’ मुझे प्यार भी नहीं |
बेइश्क जिंदगी नहीं’ आसान है यहाँ
इस मर्ज़ की दवा मिले’ आसार भी नहीं |
कटती नहीं निशा ते’रे’ दीदार के बिना
दीदार और का कभी’ स्वीकार भी नहीं |
अब काटना है उम्र ख़ुशी हो या’ गम सनम
तू याद में बसेगी’ तो’ दुश्वार भी नहीं |
अनजान देश में कभी’ तुम यदि उदास हो
सन्देश किस तरह मिले’ अखबार भी नहीं |
दीवानगी ‘प्रसाद’ पे’ वहशत की हद हुई
अब वेदना का’ को’ई’ भी आजार भी नहीं |
दिल से अगर कभी कभी’ मिलता नहीं है’ दिल
समझौता’ मायने नहीं’ तकरार भी नहीं |
इनकी कला बखान करूँ क्या खुदा बता
लड़ते हैं’ और हाथ में’ तलवार भी नहीं |( गिरह )
शब्दार्थ
दुश्वार –मुश्किल ; आजार – दुःख/दर्द का स्वाद
वहशत – पागलपन /भय
कालीपद ‘प्रसाद’