कविता – अक्षर-माला
अक्षर-अक्षर की माला बुनती ,
सत-शब्दों के कुछ मोती चुनती,
मनभावों की भाषा लिखती ,
लिखती हूं प्रीत के गीत प्रिये…..
कलम साधती संग कागज के,
तब स्याही का सागर भरती,
मानस के ज्वार विचारों से ,
लिखती हूं प्रीत के गीत प्रिये…..
हृदय-गगन के तारक जैसे,
जड़ देती हूँ नगमे नूतन ,
चांद सरीखे उज्ज्वल-उज्ज्वल,
लिखती हूं प्रीत के गीत प्रिये…..
कर शारद का वंदन-अभिनंदन,
पहनाती हूं सुरभित माला,
नित साधक सी करूं साधना,
लिखती हूं प्रीत के गीत प्रिये…..
नित नवल सूर्य से वचन प्रखर,
आलोकित “मौज” जगत करते,
रोशन मन-मस्तिष्क किए जाती,
लिखती हूं प्रीत के गीत प्रिये…..
— विमला महरिया “मौज”