कविता

सिसकती कलाईयाँ

लो आ गई राखी फिर से माँ
आज फिर मेरी कलाई सूनी है
बाँधी हैं सबने रंग-बिरंगी राखियाँ
पर मेरी कलाईयाँ सूनी हैं!

काश! मेरी भी एक बहन होती
जो बाँधती राखी मुझको
बाँधकर राखी मुझे
गले से लगा लेती मुझको
लो आ गई……

सुना है एक दो नहीं
पाँच-पाँच बहनें थीं मुझको
उन्हें कोख में ही मिटा दिया
क्यूँकि घरवालों को पाना था मुझको
लो आ गई…….

मैं जानता हूँ
आसान नहीं रहा होगा यह तेरे लिए
बहुत जुल्म सहे होंगे यह करने के लिए
आसान नहीं होता अपनी जान के टुकड़े कर देना
कितनी मौत मरी होगी तू एक मुझे पाने के लिए
लो आ गई……
माँ तेरे इस दर्द का मैं भी लिसता हूँ
खोया तूने अगर अपनी रूह के टुकड़ों को
तो पाने के लिए कई रिश्तों को मैं भी तरसा हूँ
लो आ गई…….

अब न होगा कोई मेरा जीजा
न कोई मुझे मामा पुकारेगा
तरसेंगे मेरे बच्चे बुआ को
कौन उन्हें भतीजा पुकारेगा

काश तूने थोड़ी-सी और
उपेक्षा, असुरक्षा, धिक्कारे जाने की त्रासदी सह ली होती
अड़ जाती अपने फैसले पर नहीं मिटाऊंगी
यह आवाज तूने बुलंद कर दी होती

तो आज मैं दोषी न होता
पांच-पांच बहनों के कत्ल का

बन गई होती मेरी पांच-पांच बहनें
यह आंगन महक उठता उन नन्हीं कलियों से

सिसकती न मेरी कलाईयाँ
राखी के त्योहारों पे
राखी के त्योहारों पे!

— विजयता सुरी रमण

विजेता सूरी

विजेता सूरी निवासी जम्मू, पति- श्री रमण कुमार सूरी, दो पुत्र पुष्प और चैतन्य। जन्म दिल्ली में, शिक्षा जम्मू में, एम.ए. हिन्दी, पुस्तकालय विज्ञान में स्नातक उपाधि, वर्तमान में गृहिणी, रेडियो पर कार्यक्रम, समाचार पत्रों में भी लेख प्रकाशित। जे ऐंड के अकेडमी ऑफ आर्ट, कल्चर एंड लैंग्वेजिज जम्मू के 'शिराज़ा' से जयपुर की 'माही संदेश' व 'सम्पर्क साहित्य संस्थान' व दिल्ली के 'प्रखर गूंज' से समय समय पर रचनाएं प्रकाशित। सृजन लेख कहानियां छंदमुक्त कविताएं। सांझा काव्य संग्रह कहानी संग्रह प्रकाशित।