मैं तो तेरी नगरी चलती हूँ
इन दो आँखों की कश्ती में
साजोसामान सभी रखकर।
धाराओं का रुख करती हूँ
मैं तो तेरी नगरी चलती हूँ ।।
पल प्रतिपल पार बुलाते हो
औ मुखर इधर मुस्काते हो ।
किस धार बहूँ बोलो तब प्रिय
पतवारे जब ठग ले जाते हो ।।
मत खेलो ये ऊसर खेल प्रिये
नयनो संग कर लो मेल प्रिये।
तन बाँट दिया दो टुकड़ोंं में
मन तो इत उत मत ठेल प्रिये।।
इस घाट भले माटी की नाव
हों पलकों पे कितने ही घाव ।
अब नींद भले तेरे गाँव बसी
हर रंग मिलें इनकी ही छाँव ।।
यह सफ़र सुहाना बन जाये
एक ग़ज़ल तराना बन जाये ।
दुनिया मुझे दीवानी कहती
कोई मेरा दीवाना बन जाये ।।
निज हाथ बढ़ा देखो प्रियतम
किस तरह आज मुकरती हूँ ।
हृद नाद अनसुनी मत करना
पग पग बस तुम्हे सुमरती हूँ ।।
प्रियंवदा अवस्थी©2015