कृष्ण-सुदामा
अपने घनिष्ट मित्र नंदनी के पार्थिव शरीर, अग्नि को सौंप कर सतीश अपने भावों को यादों का खाद पानी दे सींच रहा। उसकी बिटिया की शादी अचानक से तैय हो गई जल्दबाज़ी में लाखों का इंतज़ाम करना था। समय ने उसे आखिर सिखा ही दिया कि लेखन के राजा/रानी को लक्ष्मी का साथ नहीं मिलता ना ही सगे अपने रिश्तेदार क़रीब आना चाहते हैं।
दिन क़रीब आता जा रहा था और चिंता बढ़ती जा रही थी। एक दिन वो अपने कमरे में बैठा था कि नंदनी उससे मिलने आई उदासी में घिरे मित्र को देख। चिंता का कारण जान गई । बिना रक़म भरे हस्ताक्षर कर चेक थमाते हुए बोली कि बैंक में रखा रक़म मिट्टी ही है। जब दोस्त के काम ना आए। जितना है, सब निकाल लेना और बिटिया की शादी धूम-धाम से कर , अपनी मुस्कुराहट वापस ले आना।
बिटिया की शादी के कई महीनों के बाद। सतीष जब रक़म वापस करने लगा तो नंदनी बोली- क्या रक़म तुम्हारे हाथों में दी थी? ना हाथ में दी थी ना हाथ में लूँगी! जहाँ से लिए थे वहीं रख आओ। …. फिर किसी के काम आ जाएँगे”