लौट के आ
खो न जाऊँ कहीं धुन्ध में ,
आ फिर से प्यार ओढ़ कर आ ।
चांदनी रात में हो हाथ मेरे हाथ में ,
बनाकर तारों को घूंघट शर्म का ,
जिंदगी की सौगात लेकर आ ।
पलकें मगरूर हों फिर से इश्क़ में ,
आंखों में आंखें डालने का वो ,
भूला हुआ वक़्त लेकर आ ।
जिद्दी हूँ या हूँ मैं वक़्त की बहती धारा ,
नदिया को लौटाने का फिर से ,
वो हसीन नजारा लेकर आ ।
खो न जाऊं “वर्षा” कहीं दीप की
जलती लौ की चमकती ज्वाला में ,
वो प्यार के सेतु दरिया से चुराकर ला ।।
— वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ