ग़ज़ल
हम गुज़रे हैं आज दर्द के बेहद क़रीब से
शायद मिंलीं ये घड़ियां हमको नसीब से।
ग़म ए दर्द की सदाएं ये हवाएं ला रहीं है
सुना रहीं हैं पुरवाइयां किस्से अजीब से ।
जीभर के उनको देखें ये शौक़ रह गया
हां फुर्सत नहीं मिली उन्हें मेरे रकीब से ।
रंगीनियां जहां की थीं गर तेरी आरज़ू
तो क्यों लगाया दिल भला तूने ग़रीब से।
गुज़रे जो वो क़रीब से दिल ने दुआएं दी
और मिल सकेगा क्या तुम्हें मुझ फकीर से।
अल्फाज नहीं ‘जानिब’ जो कर दे दर्द बयां
चाहत है मुझे कितनी अपने हबीब से।
— पावनी दीक्षित ‘जानिब’