ग़ज़ल : एक घर तलाशते ग़ैरों की नीड़ में
तन्हा रहे ताउम्र अपनों की भीड़ में
एक घर तलाशते ग़ैरों की नीड़ में!
वक्त के आइने में दिखा ये तमाशा
ख़ुद को निहारा पर दिखे न भीड़ में!
एक अनदेखी ज़ंजीर से बँधा है मन
तड़पे है पर लहू रिसता नहीं पीर में!
शानों शौक़त की लम्बी फ़ेहरिस्त है
साँस-साँस क़र्ज़दार गिनती मगर अमीर में!
रूबरू होने से कतराता है मन
जंग देख न ले जग मुझमें औ ज़मीर में!
पहचान भी मिटी सब अपने भी रूठे
पर ज़िन्दगी रुकी रही कफ़स के नजीर में!
बसर तो हुई मगर कैसी ये ज़िन्दगी
हँसते रहे डूब के आँखों के नीर में!
सफर की नादानियाँ कहती किसे ‘शब’
कमबख़्त उलझी ज़िन्दगी अपने शरीर में!
— डॉ. जेन्नी शबनम (17. 4. 2017)