ग़ज़ल
मेरे अपने ही गलत यार समझते हैं मुझे
क्यों नहीं प्यार का हक़दार समझते हैं मुझे।
हाँ कभी दी थी सदा मैंने तुझे भी बढ़ कर
लोग हरबार खतावार समझते हैं मुझे।
काश बतलाए कोई आज दवा मुझको भी
अब तो सब लोग ही बीमार समझते हैं मुझे।
प्यार माँगा है यहां भीख सा मैंने हरदम
और वो इसपे भी खुद्दार समझते हैं मुझे।
मैं खबर एक नई बन के रही हूँ “शुभदा”
और वो पुराना सा ही अखवार समझते हैं मुझे।
— शुभदा वाजपेई