ग़ज़ल
नज़र की क्या कहें अब तो ज़िगर भी हो गए पत्थर
कहाँ बू -ऐ-वफा खोयी कि घर भी हो गए पत्थर
खुदा तब बेबसी में शब- सहर रोया यकीनन है
गुलों से खिलखिलाते जब शज़र भी हो गए पत्थर
बड़ी उम्मीद लेकर मैं चली आयी सुनो प्यारे
मगर थी क्या खबर दीवार -दर भी हो गए पत्थर
मुलम्मा वक़्त का चढ़ता गया क्यूँ इस कदर बोलो
कि पत्थर को हँसाकर बाहुनर भी हो गए पत्थर
भरा किसने ज़हर दिल में तुम्हारे बोल दो इतना
असर ऐसा मुहब्बत के शहर भी हो गए पत्थर
हवा झोंका नहीं लाया कभी क्या मेरी यादों का
कहाँ है दफ़्न रोज़न इश्क-तर भी हो गए पत्थर
नदी का साथ देने की तड़प पाली समन्दर ने
निभाना खेल समझा तो मुखर भी हो गए पत्थर
यकीं करना हुआ मुश्किल कसम टूटे सितारे की
वही तुम बिन यही शम्सो-क़मर भी हो गए पत्थर
सदा ही नाज़ था तुझपे मुझे ऐ दोस्त मेरी जां
किया क्यूँ वार दिल पे ही ‘अधर’ भी हो गए पत्थर
— शुभा शुक्ला मिश्रा ‘अधर’