परम्परा का परिष्करण
ठसाठस भरे होने के बावजूद भी पांडाल में पूर्ण शांति थी। स्वामी जी अपने प्रवचन के बाद देश-विदेश से आये अपने अनुयायीयों की अध्यात्म सम्बन्धी शंकाओं के उत्तर दे रहे थे। उस समय एक व्यक्ति ने पूछा,
“स्वामी जी, भगवान कृष्ण ने इंद्र के स्थान पर गोवर्धन पर्वत की पूजा की जो परंपरा प्रारंभ की, क्या वह उचित थी?”
स्वामी जी अपने चिर-परिचित अंदाज में मुस्कुरा दिये, और बहुत प्रेम से उस व्यक्ति की तरफ देख कर शांत और मधुर स्वर में कहा,
“बिल्कुल उचित थी, प्रभु कृष्ण ने पुरानी रीतियों का समयानुसार परिष्करण किया, चूँकि गोवर्धन पर्वत द्वारा कई प्रकृति प्रदत्त लाभ थे, गोवर्धन वहां के निवासियों के सुविधापूर्ण जीवन-यापन में सहायक था, तो निर्जीव होते हुए भी उसका सरंक्षण आवश्यक था।“
इतने में पहली पंक्ति में बैठे हुए एक व्यक्ति के मोबाइल फ़ोन की घंटी घनघनाने लगी, स्वामी जी कुछ क्षण को चुप हुए, और पुनः शांति हो जाने के पश्चात् आँखें बंद कर कहने लगे, “सरंक्षण केवल भौतिक ही नहीं मानसिक और अध्यात्मिक रूप से भी आवश्यक है, ताकि सकारात्मक ऊर्जा और प्रवाहित होकर उसे सशक्त…”
उस व्यक्ति के मोबाइल फ़ोन की घंटी पुनः बजी, स्वामी जी की तन्द्रा जैसे टूटी, और वह मोबाइल फ़ोन वाले व्यक्ति की तरफ देखकर मुस्कुरा दिये। स्वामी जी का इशारा समझ कर, उनके सेवामंडल का एक कार्यकर्ता आगे बढ़ा और मोबाइल फोन वाले व्यक्ति के पास जाकर उससे कहा, “यहाँ मोबाइल लाना सख्त मना है, यदि लाये हैं तो उसे बंद रखिये।”
पहली कतार में बैठा वह व्यक्ति उठा, और अपने मोबाइल फ़ोन को अपने सिर-आँखों पर लगाया, बड़ी श्रद्धा से मोबाइल को अपने बैग में डाला फिर स्वामी जी की तरफ देखकर मुस्कुराया और चुपचाप चला गया।
स्वामी जी को उसके जाने तक कुछ कहने के लिए शब्द नहीं मिल रहे थे।