मैं लेखनी की धार हूँ
क्या वेदना जग की सुना दूँ ,
या प्रीत का उपहार दूँ ।
या मौन तोड़ू मैं ‘अधर’ का ,
कह दूँ तुम्हारा प्यार हूँ ।।
मैं लेखनी की धार हूँ
इन स्याह रातों में निरन्तर ,
दूँ उजाला वर्तिका बन ।
सब भाव हिय के व्यक्त करती,
मैं लेखनी की धार हूँ ।।
मैं लेखनी की ••••••••
क्या रण -शौर्य की गाथा रचूँ ,
या दीप्त उज्वल भाल चूमूँ ।
रक्त- रंजित उर क्षुब्ध लेकर,
कलिकाल को ललकार दूँ ।।
मैं लेखनी की •••••••••
है कर रहा नर्तन जगत यह,
इक मात्र जिसकी दृष्टि से ।
पर भ्रमित है मानव अकिंचन,
आशा अलख अविकार दूँ ।।
मैं लेखनी की ••••••••••
दूँ शिराओं में रक्त को गति,
उन्मुक्त कर मन – बन्ध से ।
जो हत हुए जीवन समर से ,
नत असीमित संसार दूँ ।।
मैं लेखनी की •••••••••••
झूमती हूँ मृदु मधु वलय में,
पुष्ट होती प्रेम पाकर ,
माँ शारदे के उर – निलय में,
सामीप्य का आधिकार दूँ ।।
मैं लेखनी की ••••••••
सम शीतोष्ण जो हर हाल में,
प्राण ढोते पीर हँस कर ।
है सत्य गुम्फन कर्म जिसका,
अक्लिष्ट रचनाकार दूँ ।।
मैं लेखनी की •••••••
मैं अजर हूँ हाँ मैं अमर हूँ,
मैं आज भी सुकुमार हूँ ।
हूँ सुपोषित मनुज – मन से ,
उर से उसे मनुहार दूँ ।।
मैं लेखनी की •••••••••