लेख

दलितों की अस्मिता : डॉ.जयप्रकाश कर्दम

जीवन को जीतनेवाले बहुत कम लोग होते हैं। उनमें डॉ.जयप्रकाश कर्दम जी का नाम आदर के साथ लिया जाता है। आप दलित साहित्य के प्रमुख स्तंभ एवं सशक्त हस्ताक्षर हैं। एक ओर हिंदी की सेवा में विभिन्न पदों का आभूषित करते दूसरी ओर दलितों में अस्मिता बढ़ाने का कार्य करते वे निरंतर परिश्रमी हैं। बौद्ध धर्म में दीक्षित होकर अहिंसा धर्म को फैलाते उच्च शिखर पर बैठे मानवता के मूर्ति हैं। बाबा साहब डॉ.अंबेडकर की आशय साधना में अपने को समर्पित करनेवाले मनीषी हैं। आप दलितों का मनोबल एवं अस्मिता है। 2017 मई महीने में मान्य राष्ट्रपति से महापंडित राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार 2015 प्राप्त करनेवाले हैं। आपके बारे में कुछ जानकारी प्राप्त करेंगे।
डॉ.जयप्रकाश कर्दम जी का जन्म उत्तरप्रदेश के गाजियाबाद जिले के इंदरगढ़ी नामक गाँव में 17 फरवरी 1957 को एक दलित परिवार में हुआ है। आपकी माता का नाम अतरकली और पिता का नाम हरिसिंह है। माता-पिता दोनों खूब मेहनत करनेवाले थे। सन् 1976 में बीमारी से त्रस्त होकर पिता की अकाल मौत हो गयी। उस समय वे ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ते थे। परिवार में बड़ा होने के कारण पारिवारिक जिम्मेदारी उन पर पड़ी है। कलाशाला जाने के बजाय उनको मजदूरी खोज़ना पड़ा। अकुशल मजदूरी के रूप में काम करते वे रात के समय में पढ़ते थे। घर में बिजली तक न थी। मच्छर काटते थे। प्रतिभा को समस्याएँ झुकाते नहीं। प्राथमिक स्तर की पढ़ाई से भी वे अव्वल दर्जे का छात्र था। हर कक्षा में वे ही प्रथम रहते थे। उनकी रूचि विज्ञान में थी। वे इंजनीयर बनना चाहते थे। लेकिन आर्थिक विपदाएँ उनकी आशाओं को बरबाद किया है। पिता की मृत्यु के बाद उनको कटु दुःख को भोगना पड़ा है। पढ़ाई की आशा निराशा में बदली है। वे कक्षा बारह के बाद इंजनीयरिंग में ही नहीं बल्कि बी.एस.सी में भी भर्ती न हो पाया था। 140 रूपये के अभाव में बी.ए.में दाखिल न होकर मजदूरी की तलाश में निकलना पड़ा था। फलत: उनको एक साल कलाशाला से दूर रहना पड़ा। जब तक उनके दादा रहते थे तब तक उनके परिवार में कोई आर्थिक संकट न थी। पारिवारिक बोझ उठाते उनको लगा कि ‘जीवन इन्हीं निराशाओं में गुज़र जायेगी।’ऐसी हालत में रूसो के प्रसिद्ध लेखक मेक्सिम गोर्की,प्रेमचंद की रचनाएँ उनमें आत्मविश्वास बढ़ाया है। उनको प्रभावित करनेवालों में बाबा साहब डॉ.अंबेडकर का योगदान महत्वपूर्ण है। बाबा साहब का अनुयायी बनते वे बौद्ध धर्म में दीक्षित हुए हैं। बी.ए पढ़ाई के दौरान में सरकारी नौकरी की शुरूआत हुई। बिक्रीकर विभाग में अमीन के रूप में काम करते थे। बाद में दो-तीन साल क्लर्क का काम किया। नौकरी करते – करते पढ़ाई भी जारी किया। सन् 1988 में तारा जी से बौद्ध पद्धति में विवाह किये हैं। विभिन्न पदों का अलंकृत करते आज वे केंद्रीय हिंदी संस्थान के निदेशक के रूप में कार्यरत हैं।
हिंदी दलित साहित्य में पहला दलित उपन्यास छप्पर लिखने का श्रेय उनको मिला है। तलाश,खरोंच उनके बहु चर्चित कहानी संग्रह हैं। गूँगा नहीं था मैं,तिनका तिनका आग,बस्तियों से बाहर उनके कविता संग्रह हैं। करूणा, श्मशान का रहस्य आदि उपन्यास, कई विचार प्रबंध एवं आलोचना प्रबंध,अनूदित पुस्तकें पाठकों में नयी स्फूर्ति प्रदान करनेवाले हैं। उनकी रचनाओं में समाज में व्याप्त विषमता,भूख,यंत्रणा,सांप्रदायिकता,उत्पीड़न,जातिभेद का चित्रण प्रमुखतः दिखायी देता है।

पी. रवींद्रनाथ

ओहदा : पाठशाला सहायक (हिंदी), शैक्षिक योग्यताएँ : एम .ए .(हिंदी,अंग्रेजी)., एम.फिल (हिंदी), सेट, पी.एच.डी. शोधार्थी एस.वी.यूनिवर्सिटी तिरूपति। कार्यस्थान। : जिला परिषत् उन्नत पाठशाला, वेंकटराजु पल्ले, चिट्वेल मंडल कड़पा जिला ,आँ.प्र.516110 प्रकाशित कृतियाँ : वेदना के शूल कविता संग्रह। विभिन्न पत्रिकाओं में दस से अधिक आलेख । प्रवृत्ति : कविता ,कहानी लिखना, तेलुगु और हिंदी में । डॉ.सर्वेपल्लि राधाकृष्णन राष्ट्रीय उत्तम अध्यापक पुरस्कार प्राप्त एवं नेशनल एक्शलेन्सी अवार्ड। वेदना के शूल कविता संग्रह के लिए सूरजपाल साहित्य सम्मान।