कविता

कविता

छुपा हुआ है एक दुशासन,
शायद मेरे मन में भी,

सत्य तो और भी थे लेकिन,
मैंने कड़वा ही सत्य कहा,
साधा मौन प्रशंसा में और,
परनिंदा में मुखर रहा,
किसी को अपमानित करने का,
जब-जब यत्न किया मैंने,
भरी सभा में पांचाली का,
तब-तब चीर हरा मैंने,
भाग्य की चौपड़ पर मैंने भी,
कितनी चालें कुटिल चलीं,
पासे फेंके शकुनि वाले,
फिर भी ना कोई बात बनी,
मिला ना जीवन भर मुझको जो,
मिल सकता था क्षण में भी,
छुपा हुआ है एक दुशासन,
शायद मेरे मन में भी,

बनना चाहा था माधव पर,
उतना मुझको ज्ञान नहीं,
शीतल कर दे अंतर्मन को,
वो मुरली की तान नहीं,
गूंज रहा उर में जो मेरे,
वो केवल कोलाहल है,
मुझे निगलने को आतुर,
इक भीषण सा दावानल है,
अमृत रूपी प्रेम सुधा की,
दो बूँदें जो मिल जाती
तिक्तता कटु हलाहल की,
थोड़ी सी कम हो पाती,
शायद तब कुछ कर पाता,
निरूद्देश्य जीवन में भी,
छुपा हुआ है एक दुशासन,
शायद मेरे मन में भी,

आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।

*भरत मल्होत्रा

जन्म 17 अगस्त 1970 शिक्षा स्नातक, पेशे से व्यावसायी, मूल रूप से अमृतसर, पंजाब निवासी और वर्तमान में माया नगरी मुम्बई में निवास, कृति- ‘पहले ही चर्चे हैं जमाने में’ (पहला स्वतंत्र संग्रह), विविध- देश व विदेश (कनाडा) के प्रतिष्ठित समाचार पत्र, पत्रिकाओं व कुछ साझा संग्रहों में रचनायें प्रकाशित, मुख्यतः गजल लेखन में रुचि के साथ सोशल मीडिया पर भी सक्रिय, सम्पर्क- डी-702, वृन्दावन बिल्डिंग, पवार पब्लिक स्कूल के पास, पिंसुर जिमखाना, कांदिवली (वेस्ट) मुम्बई-400067 मो. 9820145107 ईमेल- [email protected]