कविता
छुपा हुआ है एक दुशासन,
शायद मेरे मन में भी,
सत्य तो और भी थे लेकिन,
मैंने कड़वा ही सत्य कहा,
साधा मौन प्रशंसा में और,
परनिंदा में मुखर रहा,
किसी को अपमानित करने का,
जब-जब यत्न किया मैंने,
भरी सभा में पांचाली का,
तब-तब चीर हरा मैंने,
भाग्य की चौपड़ पर मैंने भी,
कितनी चालें कुटिल चलीं,
पासे फेंके शकुनि वाले,
फिर भी ना कोई बात बनी,
मिला ना जीवन भर मुझको जो,
मिल सकता था क्षण में भी,
छुपा हुआ है एक दुशासन,
शायद मेरे मन में भी,
बनना चाहा था माधव पर,
उतना मुझको ज्ञान नहीं,
शीतल कर दे अंतर्मन को,
वो मुरली की तान नहीं,
गूंज रहा उर में जो मेरे,
वो केवल कोलाहल है,
मुझे निगलने को आतुर,
इक भीषण सा दावानल है,
अमृत रूपी प्रेम सुधा की,
दो बूँदें जो मिल जाती
तिक्तता कटु हलाहल की,
थोड़ी सी कम हो पाती,
शायद तब कुछ कर पाता,
निरूद्देश्य जीवन में भी,
छुपा हुआ है एक दुशासन,
शायद मेरे मन में भी,
आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।