गीत/नवगीत

खेवत उर केवट बनि

खेवत उर केवट बनि, केशव सृष्टि विचरत;
सुर प्रकटत सुधि देवत, किसलय हर लय फुरकत !
कालन परिसीमा तजि, शासन के त्रासन तरि;
कंसन कौ चूरि अहं, वंशन कौ अँश तरत !
हँसन कौ मन समझत, हं- सो की धुनि प्रणवत;
जीवन्ह जीवन सिखवत, जंजालन तिन बचवत !
दूर रहन कब चाहत, हर पल श्वाँसन रहवत;
यदि कोऊ ना चहवत, निकट तिनहिं ना पावत !
तरजत तिनकन गति मति, ग्रह तारन रखि धड़कन;
तारत ‘मधु’ रत त्रिभुवन, चरणन में देत शरण !
— गोपाल बघेल ‘मधु’