“श्रमिकों के ख्वाब चकनाचूर हैं”
वो मजे में चूर हैं, बस इसलिए मग़रूर हैं
हम मजे से दूर हैं, बस इसलिए मजदूर हैं
आज भी बच्चे हमारे, बीनते कचरा यहाँ,
किन्तु उनके लाल, मस्ती के लिए मशहूर हैं
कोठियों को बनाकर, हम सो रहे फुटपाथ पर
उन निठल्लों के लिए तो, कोठियाँ भरपूर हैं
हम पसीने को बहाकर, सींचते जाते चमन
जो गुलों को नोचते, वो हो गये पुरनूर हैं
नक्कारखाने में फँसी, तूती बिचारी क्या करे
अंजुमन में लोग तो अपने नशे में चूर हैं
लोकशाही का यहाँ, कितना घिनौना “रूप” है
श्रमिकों के ख्वाब सारे आज चकनाचूर हैं
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(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)