गज़ल
शाम-ए-गम में जब किस्से पुराने याद आते हैं,
सूने दश्त में जैसे दिए कुछ टिमटिमाते हैं,
तरोताजा हो उठती हैं तुम्हारी वो मुलाकातें,
बन के अश्क आँखों में अक्स फिर झिलमिलाते हैं,
मैं तनहा मुसाफिर हूँ गिर के खुद संभलता हूँ,
सहारा भी नहीं मिलता कदम जब डगमगाते हैं,
सजती थी महफिल जिस जगह हर वक्त यारों की,
वहां आठों पहर अब बस सन्नाटे गुनगुनाते हैं,
ना तू आया ना काफी देर से खत भी तेरा आया,
मेरे हालात पर अब गम मेरे भी मुस्कुराते हैं,
आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।