कविता

कविता : जाति – प्रथा

अक्षपाद औ’ कणाद  युग में

रही नहीं  कभी जाति – प्रथा

किसने  किया इसे  अनावृत

जो आज बनी है व्यथा-कथा |

चार वरण थे व्यवसाय से

वर्ण व्यवस्था  तब भी थी

अनेकानेक वर्णों से खंडित

वर्ण व्यवस्था  अब भी है |

ब्रह्मावृत्त ज्ञानी औ’ पंडित

ब्राह्मण तब कहलाता था

मानवता को सही दिशा दे

विज्ञान ब्रह्म बतलाता था |

युद्धकला से निपुण  बांकुरा

राजतन्त्र में जो राज चलाता

सब जन का छतरी बनकर

आखिर वही क्षत्री कहलाता |

लेन – देन में व्यवहार कुशल

महिमा अर्थ का मंडित करता

अंकुश धर्म का रखता अर्थ पे

धर्म वैश्य का अखंडित रखता |

सेवा ही सम्बल  रहा जिनका

वे सब सारे  शुद्र कहलाते थे

नर में ही  नारायण देख–देख

भव सागर तक  तर जाते थे |

— श्याम “स्नेही”

 

वर्तमान में नहीं छतरी प्रतीक

न ही ब्रह्मज्ञान का कोई रूद्र

रहा नहीं को,ई  वैश्य प्रबुद्ध

अब न ही कोई सेवाभावी शुद्र |

 

इसी व्यवस्था के थे सहयोगी

कर्तव्यभाव से बंधा था योगी

कभी न होता लोभी औ’ भोगी

रहे महान  अविभक्त वियोगी |

 

 

मिथ्या जाति के इस वयार में

अब हो रहे  सब तो  घालमेल

कटोरा हाथ में डिग्री का लेकर

सेवक बनने को हो रहे बेहाल |

 

सभी जातियाँ तो आगे – पीछे

सेवक की बस  एक जात रही

हुई वर्ण धर्म की  बात पुरानी

बस क्षुद्र नौकरी बडजात सही |

 

-:श्याम “स्नेही” शास्त्री

५०२/१०ए, गुडगाँव, हरियाणा

Mob.- 09990178502

 

श्याम स्नेही

श्री श्याम "स्नेही" हिंदी के कई सम्मानों से विभुषित हो चुके हैं| हरियाणा हिंदी सेवी सम्मान और फणीश्वर नाथ रेणु सम्मान के अलावे और भी कई सम्मानों के अलावे देश के कई प्रतिष्ठित मंचों पर अपनी प्रस्तुति से प्रतिष्ठा अर्जित की है अध्यात्म, राष्ट्र प्रेम और वर्तमान राजनीतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों पर इनकी पैनी नजर से लेख और कई कविताएँ प्रकाशित हो चुकी है | 502/से-10ए, गुरुग्राम, हरियाणा। 9990745436 ईमेल[email protected]