विभीषण बनाम वर्तमान
जिस राम की लड़ाई आज देश में सांगोपांग लड़ी जा रही है, ये लड़ाई तो मानवीय मूल्यों के स्थापनार्थ मर्यादापुरुषोत्तम राम ने त्रेता में आसुरी शक्तियों के प्रतीक रावण के विरुद्ध भी लड़ी थी और विजय के साथ इस देश में ही नहीं श्रीलंका में भी कई स्मृति चिन्ह छोड़े थे |
मानवीय मूल्यों के जो कीर्तिमान राम ने जिस देश में स्थापित किये गये हों उसी देश में उसी राम के नाम पर मात्र सत्ता के निमित्त मर्यादाओं की भी सीमाएं लांघी जाने लगे तो विचारणीय यक्ष प्रश्न निश्चित ही खड़ा हो जाता है |
प्रसंगवश, विभीषण के सहयोग और मंत्रणा के फलस्वरूप तथा अन्य वानरी सेना के पराक्रम के पश्चात लंका विजय के उपरान्त सभी श्रीराम-जानकी के साथ पुष्पक विमान से अयोध्या आये थे | कुछ समयावधि के पश्चात श्रीराम ने सबों को अपने उत्तरदायित्त्व सम्हालने हेतु वापस लौट जाने का आदेश भी सुनाया था और सभी बुझे मन से ही सही वापस भी अपने –अपने राज-काज सम्हालने वापस भी हो गये थे |
भारत में वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए लगता है सभी वानरी सेना प्रमुख तो वापस चले गये प्रत्यक्षत: सशरीर विभीषण भी | मगर, श्रीराम से अतिशय प्रेम के कारण अप्रत्यक्षत: विभीषण की आत्मा भारत में ही भटकती रही | राम के गोलोकवासी होने के उपरान्त भी | तब से लेकर अबतक विभीषण की आत्मा कई रूपों में शरीर ग्रहण करती रही पर उस धनुषधारी मर्यादा पुरुषोत्तम राम पूरे देश में जडवत तो जरुर मिले पर, चैतन्य रूप में आज तक नहीं मिल पाये | और विचारा विभीषण शरीर-दर-शरीर अबतक चोले बदलता रहा साथ ही वंशवृद्धि भी करता रहा |
यह बात भी दीगर है कि कृष्ण काल में कंस, दुर्योधन आदि के रूप में सर उठाने के प्रयास भी बखूबी होते रहे पर हमेशा कृष्ण द्वारा उनके सर भी कुचले जाते रहे |
पर, दुर्भाग्यवश वर्तमान युग में कोई निष्कामी कृष्ण धर्म संस्थापनार्थाय अब तक अवतार नहीं ले सका और त्रेता के विभीषण की वंशवृद्धि भी निरंतर अबाधगति से जारी है | जिसे वर्तमान के विकसित परिदृश्य में शब्दान्तरण, नामान्तरण कर गद्दार, पदलोलुप, धनलोलुप, दुश्चरित्र नेता, मीर कासीम और जयचंद के नाम से व्याख्यायित करने की एक परम्परा सी चल पड़ी है |
कभी मीर कासीम के चोले में तो कभी जयचंद के चोले में और अब तो विकासशील भारत में आधुनिक और विकसित नेता के शरीर में माया राम, गया राम, आया राम, रहीम, रहमान, रहमतुल्ला, अब्दुल्ला के रूप में दिन-रात चप्पे-चप्पे में विचर रहे हैं |
माना कि तब भी विभीषण, मीर कासीम और जयचंद आदि के भी कुछ निजी स्वार्थ थे, मंशा थी, लोभ था राजा बनने की और आज तो और भी तीव्र लिप्सा अधिक स्पष्ट दृष्टिगोचर है | जब, सम्प्रदाय के नाम पर, जाति के नाम पर, अर्थ और पदलोलुपतावश अधार्मिक और राष्ट्रद्रोही उकसावे भरे व्याख्यान आये दिन देखने-सुनने को मिल ही जाते हैं |
जैसे लंकाधिपति रावण द्वारा शासित भू-क्षेत्र में निवास करते हुए विभीषण मानवीय मूल्यों के नाम पर आधुनिक विकास और सिद्धान्तों से लिप्सावश सहमत होते हुए (विभीषण के लिए) विदेशी भारत के पराक्रमी राम से दोस्ती गाँठ कर लंका को राख की ढेरी में तब्दील ही नहीं कराया बल्कि रावण जैसे स्वाभिमानी भाई को मरवाया और लंका का सर्वनाश कराकर खुद सत्ता पर काबिज हो गया |
ऐसा ही बहुत कुछ तो वर्तमान भारत में भी घटित हो रहा है | सुविधायुक्त विकास के चकाचौंध के पक्षधर विभीषण अपने वंशानुगत संस्कारवश दुश्मनों से भी हाथ मिलाने से बाज नहीं आते दीखते | जब व्यक्ति, व्यक्तिगत स्वार्थवश विदेशी शक्तियों के सिद्धांत और विचारों को ही विकास का मूर्तिमान कीर्तिमान मानते हुए, देशी मुखौटा लगाये भोंपू का काम बखूबी करने के साथ मुखबिरी भी करे तो कहना ही पड़ेगा “एक तो करैला यूँ ही तीता उसपे नीम चढा|”
ऐसा ही बहुत कुछ इस देश के अभिन्न अंग कश्मीर में ही नहीं, बल्कि कमोबेश पूरे देश में हो रहा है | ये अलग बात है कि कश्मीर में कुछ ज्यादा ही हो रहा है जहां सत्तालोलुप अभिनेतानुमा नेता बखूबी अभिनय कर रहे हैं | इसमें आश्चर्य की कौन सी बड़ी बात ? इतिहास उठाकर देखें तो आजादी के आन्दोलन से अद्यतन धनलोलुप, पदलोलुप और सत्तालोलुपों के सामान्य दिनचर्या आदतन रही है और आगे भी रहेगी |
चलते-चलते, किसी के मजाक-मजाक मे, एक सुनी-सुनाई कथनोपकथन के अनुसार आजादी के बाद भारत देश की अनिर्णयात्मक राजनैतिक स्थिति के, जो मूलकारण निष्कर्ष रूप में समझ आ रहा है वह ये कि – जब भगवान राम लंकाविजय के उपरान्त जगत जननी जानकी के विशेष अनुरोध पर मां गंगा की पूजा-अर्चना के लिए पुष्पक विमान से उतरे तो वहाँ अपार जन समूह को देखकर थोड़ा विचलित भी हुए क्योंकि उन्होंने तो सभी को वापस अयोध्या लौट जाने की प्रार्थना भी की थी | पर ये क्या ? काफी लोग अब भी गंगा के किनारे डेरा जमाए हुए हैं | पूछने पर पता चला कि प्रभु आपने तो कहा था- “अयोध्या के नर-नारियों वापस लौट जायँ |” मगर, हमारे लिए तो कोई आदेश नहीं था आपकी ओर से, फिर हमलोग तो आपके दास ठहरे | तब से लेकर अबतक हम सभी आपके लौटने की व्यग्रता से प्रतीक्षा में हैं और अब आप आ गये तो हमलोग भी वापस लौट चलेंगे |
करुणासागर राम द्रवीभूत होते हुए बोले – “ तुम्हारी चौदह वर्ष की प्रतीक्षित साधना से प्रसन्न होकर वरदान देता हूँ कि – कलियुग में तुम्हारा ही राज होगा |”
शायद, ये भी एक प्रमुख कारण रहा हो कि आजादी के बाद कोई भी राजनैतिक निर्णय स्वार्थयुक्त और ढुलमुल रहा और विभीषण, जयचंदों की जनसंख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि होती ही रही |
जय बोलो विभीषण-जयचंदों जैसे गद्दार की |
— स्नेही “श्याम”
गुरुग्राम, हरियाणा