हास्य व्यंग्य

कड़ी निंदा की लाबीइंग

एक दिन क्या हुआ कि, मैं सुबह-सुबह अखबार की प्रतीक्षा में, अनमने से बैठा हुआ था, तभी मेरे एक मित्र पधारे। मैंने आवभगत की। बातों-बातों में मित्र जी एक तीसरे की बात ले बैठे और न जाने क्या-क्या भड़ास निकालते रहे, हलाँकि मैं चुप ही रहा पर गौर से उनकी बातें सुनता रहा था। मेरी चुप्पी पर वे मित्र महोदय भी अनमने हो गए और मुझसे बोले “आप कुछ बोलते ही नहीं” खैर मैं क्या बोलता! मैं उनके मामले को द्विपक्षीय मामला समझ रहा था। असल में जिस व्यक्ति की वे निंदा कर रहे थे उससे मेरा भी कुछ न कुछ संबंध था। वे शायद मुझसे भी अपने मित्र के लिए किसी कड़ी टाइप की निंदा की अपेक्षा कर रहे थे और अपने उस मित्र जो कि मेरे भी परिचित थे, के विरुद्ध जनमत तैयार करने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन अपनी बातों में मेरी रुचि न देखकर उन्होंने ऐसा मुँह बनाया जैसे मेरे न बोलने से उनकी कोई कूटनीतिक पराजय हुई हो।

खैर, मित्र की बातों से मुझे यह तो विश्वास हो चला था कि इन बेचारे की पीड़ा जायज है और ये निंदारस के चक्कर में नहीं, बल्कि पीड़ित मन से अपने मित्र की निंदा कर रहे थे। खैर, मैंने उन्हें यह कहते हुए विदा किया कि यह आप दोनों के बीच का मामला है और अगर अपने मित्र को कोई माकूल जवाब देना है तो, उन तक उनके नापसंदगी वाले काम की कड़ी निंदा पहुँचा दीजिए, अन्यथा आपस में मिल-बैठकर मामला सुलटा लें। मित्र बेचारे मेरा मुँह देखने लगे और फिर वापस चले गए थे।

इधर मित्र के जाने के बाद मैं भी थोड़ा परेशान हो गया था। शायद, वे मुझसे निराश होकर गए थे, इस बात से मेरा मन पश्चाताप से भर उठा था। मैं जानता था उनका नेचर आमने-सामने माकूल जवाब देने लायक नहीं है, इसीलिए मुझसे अपने मन की भड़ास निकालने आ गए थे। शायद वे अपने मित्र के अनपेक्षित काम के खिलाफ एक माहौल भी बना रहे थे।

वैसे, कोई जरूरी नहीं कि हम निंदा को मजाक का ही विषय बनाएं या किसी के प्रति कही गई कोई बात हर समय निंदा ही मानी जाए। आखिर, किसी के खराब काम की चर्चा करना निंदा थोड़ी न होता है!

इस बीच अखबार वाला अखबार फेंक कर जा चुका था। मैंने अखबार उठाया तो, उसकी पहली ही खबर पर मेरी नजर पड़ी, जहाँ देश की सरकार पाकिस्तान के सन्दर्भ में कह रही थी “हम माकूल जवाब देंगे” फिर छपा था “इस बर्बर कृत्य की हम कड़ी निंदा करते हैं” बस, इसे पढ़ते ही लगा जैसे, गुब्बारे की सारी हवा निकल गई हो..! मतलब दे दिया गया माकूल जवाब!! वैसे, मैंने भी राहत की साँस ली कि चलो बिना खून-खराबे और बिना किसी अतिरिक्त परेशानी के माकूल जवाब दे दिया गया है।

इधर “कड़ी निंदा” का अर्थ क्या है? क्या यह किसी तरह का जवाब है और अगर जवाब है भी तो कितना माकूल है? जैसे प्रश्न का उत्तर मैं खोजने बैठ गया था। वैसे, ‘कड़ी निंदा’ को मैं एक हद तक माकूल जवाब मानता हूँ क्योंकि एक बार इसकी मारक-क्षमता से मेरा सीधे साक्षात्कार हो चुका है।

वो क्या है कि नौकरी के मेरे शुरुआती दिन थे, बड़ा जज्बा था मन में कुछ कर के दिखाने का..! अब काम करके रिपोर्ट तो करनइ होता है, सो मैं भी काम करके रिपोर्ट करता, फिर उच्च लेवल पर इस रिपोर्ट की समीक्षा होती। एक बार क्या हुआ कि हमारी रिपोर्ट में काम की प्रगति अन्य की अपेक्षा कम आँकी गई और अगले दिन हमें लिफाफे में एक प्रेम-पत्र टाइप का कुछ मिला, पत्र खोलने पर इसमें लिखा पाया कि “फला योजना में आपकी खराब प्रगति के कारण आपकी कड़ी भर्त्सना की जाती है।” नई-नई नौकरी थी…पत्र पढ़कर काटो तो खून नहीं टाइप का, मैं बेतरह परेशान हो उठा..! और इस “कड़ी भर्त्सना” में निहित जबर्दस्त मारक-क्षमता का मुझे पहली बार अहसास हुआ था। मेरे काम के प्रतिफल के रूप में बास द्वारा दिए गए इस माकूल जवाब से मैं विचलित हो गया और अगले ही दिन पत्र लेकर बास के सामने हाजिर हो गया था।

बास से मैंने सफाई दी, “सर, मैंने बहुत मेहनत की है इस काम में! और एकदम सही रिपोर्टिंग की है, मैं फर्जी रिपोर्टिंग नहीं करता, आप चाहें तो दूसरे के प्रशंसित काम से मेरे काम की तुलना ग्राउंडलेबल पर करा सकते हैं..इसके बाद ही ऐसा पत्र जारी किया जाए”

मेरे बास सहृदय टाइप के व्यक्ति थे, जोर से हँसे और मुझसे बोले, “इस पत्र को इतनी गंभीरता से क्यों ले रहे हो यार..! जाओ अपना काम करो.. और हाँ रिपोर्टिंग-उपोर्टिंग भी थोड़ा बहुत सीख लो”। बास से मिलकर मैं लौटते समय एक बार पत्र पर लिखे “कड़ी भर्त्सना” शब्द पर फिर से निगाह डाली..अबकी बार इस शब्द को देख मैं मुस्कुराने लगा था क्योंकि बास से मिलकर मैंने इसकी मारक-क्षमता को डिफ्यूज कर दिया था। हालाँकि, मुझे इसकी मारक-क्षमता का भी ज्ञान प्राप्त हो चुका था। खैर, “कड़ी निंदा” और कड़ी भर्त्सना” दोनों समानार्थी होते हैं, इनकी तुलना से मैं इस विनिश्चय पर पहुँचा कि ‘कड़ी निंदा’ को माकूल जवाब मान लेना चाहिए।

वैसे, ‘कड़ी निंदा’ के अपने फायदे भी होते हैं, मतलब, ‘कड़ी निंदा’ करने वाला ऐसा करके अपनी स्थिति भी सेफ करता है और अगले वाले को अपनी रिपोर्टिंग में कह सकता है-

“देखो जी, मैंने भी काम लेने का और काम करने का जबर्दस्त प्रयास किया है और अपने इस प्रयास में ही मैंने खराब काम करने वालों की ‘कड़ी भर्त्सना’ की है!”

वैसे एक बात तो है वह यह कि, हमारा देश रिपोर्टिंग प्रक्रिया में विश्वास करने वाला देश है। यहाँ ग्राउंडलेबल वर्क की कोई अहमियत नहीं होती, केवल और केवल रिपोर्टिंग करने और रिपोर्ट तैयार करने में ही जूझते रहना होता है, बल्कि इस चक्कर में ग्राउंडलेबल का वर्क भूल जाता है। इस देश में एक तरह से रिपोर्टिंग का सिस्टम विकसित किया गया है। इस रिपोर्टिंग के खेल में महारत हांसिल कर “कड़ी निंदा” करने वाला सफलता के शिखर पर पहुंच जाता है, अन्यथा बाकी ‘कड़ी भर्त्सना’ तो झेलते ही हैं। इस देश में प्रत्येक नीचे वाला अपने से ऊपर वाले को केवल और केवल रिपोर्ट करने में ही व्यस्त है। एक बात और, यहाँ लोकतंत्र है और जनता सर्वोपरि है, इसलिए सरकारें भी जनता को ‘कड़ी निंदा’ की रिपोर्टिंग करती रहती हैं। यह सरकारों पर रिपोर्टिंग सिस्टम का प्रभाव नहीं तो और क्या है..! फिर हम अपने रिपोर्टिंग सिस्टम के चक्कर में भूल जाते हैं कि पाकिस्तान हमारा मातहत नहीं है कि “कड़ी निंदा” के मारक असर से बिलबिलाता हुआ हमारी मेज पर दौड़ा चला आएगा!!

हमने तो अपने अनुभव से यही सीखा है कि ‘कड़ी निंदा’ बिना ग्राउंडलेबल का वर्क होता है। मतलब, जो ग्राउंडलेबल के वर्क से बचना चाहते हैं वही ‘कड़ी निंदा’ करते हैं और इसे रिपोर्टिंग प्रक्रिया का एक हिस्सा भर मानते हैं। यदि ग्राउंडलेबल को समझ कर वर्क किया जाए तो फिर, असली दोषी की पहचान कर कार्रवाई करनी होती है, तब किसी ‘कड़ी भर्त्सना’ की जरूरत ही नहीं होगी। इस देश में कोई वर्ककल्चर तो कभी रहा ही नहीं, केवल रसनिष्पत्तियों पर हमारी तमाम थीसिस रही है इसी कड़ी में हमने ‘निंदा रस’ की भी खोज किया हुआ है। इस रस को निचोड़कर स्वयं पीते हैं तथा औरों को भी पिलाते हैं कि “लो भाई! कड़ी निंदा के रस में डूबे रहो..!” शायद यही कारण है, हमारा देश ‘निंदा-रस’ में डूबे रहने वाले लोगों का देश बन चुका है।

सोचता हूँ, पता नहीं मेरे वे मित्र बेचारे, मेरी सलाह मानकर अपने मित्र के साथ द्विपक्षीय वार्ता से अपना मामला सुलटा रहे होंगे या कि जवाब देने के लिए ग्राउंडलेबल पर वर्क कर रहे होंगे, या फिर निंदा की लाबीइंग करते ही अब तक घूम रहे होंगे..! खैर, मिलने पर पूछेंगे।

*विनय कुमार तिवारी

जन्म 1967, ग्राम धौरहरा, मुंगरा बादशाहपुर, जौनपुर vinayktiwari.blogspot.com.