दीवारों की आंखें भी होती हैं
आज हरिया जेल में बैठा-बैठा प्लास्टिक की निवाड़ से टोकरियां बना रहा था. कल पत्थर तोड़ने का काम मिला था, उंगलियां घायल हो गई थीं, सो आज प्लास्टिक की निवाड़ से टोकरियां बनाने में भी पीड़ा हो रह्री थी. हाथ धीरे चलने पर जेलर की एक घुड़की से हाथ तो तेज़ी से चल पड़े, पर उसकी आंखों के सामने अतीत के चित्रों को जेलर भी रोक नहीं पाया. उसे याद आया-
”हरिया, ओ हरिया, कहां हो?” सेठ दीनानाथ ने हरिया के घर से गुज़रते हुए उसको आवाज़ लगाई.
”आइए, आइए सेठ जी, आपकी पोटली तैयार है.”
”कितने हैं भाई?”
”पूरे पांच सौ. ”
”हरिया, सिक्कों की तंगी के चलते भी तुम्हें इतने सिक्के कहां से मिल जाते हैं?”
”बहुत मेहनत करनी पड़ती है, सेठ जी.”
”पुजारी से ले आते होगे, कौन-सा पहाड़ तोड़ते होगे सिक्कों के लिए?”
”छोड़िए, आप नहीं समझेंगे.”
”अरे भाई, समझाओगे तो क्यों नहीं समझेंगे?”
”तीर्थस्थान में रहते हैं न हम लोग! तीर्थयात्री अपनी मुराद पूरी करने की इच्छा से सिक्के क्षिप्रा नदी में फेंकते हैं, मैं वहीं से लाता हूं.”
”तब तो तुम भी सारा दिन नदी में स्नान करके पुण्य कमाते होगे?”
”अजी काहे का पुण्य, राम भजो. मैं तो छोटे गरीब बच्चों से निकलवाता हूं, उनकी रोज़ी हो जाती है, मेरी रोटी.”
”हरिया, छोटे बच्चों से काम करवाना तो जुर्म है, फिर कोई डूब जाए तो.”
”आपको सिक्के लेने हैं तो लो, वरना बहुतेरे ग्राहक मिल जाएंगे.” हरिया तुनककर बोला.
”हरिया, ज़रा धीरे बोल, दीवारों के भी कान होते हैं.”
”दीवारों के सिर्फ़ कान ही नहीं दीवारों की आंखें भी होती हैं.” पुलिस थानेदार गोपेश्वर ने तुरंत उसके सामने वीडियो क्लिप चला दी. हरिया को काटो तो खून नहीं.