“नाबूद हुई कालर”
काव्य रचना…….
चूहे ने फिर से कुतर दिया
टगे हुए कुरते की कालर
कहीं कतरन कहीं झालर
मिला जमात को एक नया ब्यूटीपार्लर
घूर रहे, घूम रहे, चिढ़ रहा कुर्ता
चूहों ने जिसका बना दिया भुर्ता।।
पगरखे को दबोच लिया
शाम को, गली के एक कुत्ते ने
उधर पड़ा है छुपाया पेड़ पत्ते ने
खर्च हो गई रसद जो दिए दिहाड़ी भत्ते ने
जाना था दर्शन को शिवाला
अरमानों का निकल गया दिवाला।।
दर्जी ने अपनी कैंची चला दिया
समझा बुझाकर निकाल दिया रास्ता
अब इस कालर से कैसा वास्ता
नाप काट से होश हुए फाख्ता
झाड़ पोछकर पहन लिया चप्पल
घर की कौन कहें राह चले धुप्पल।।
वाह रे कतरन और वाह रे झालर
रंगीन रंग कुरता नाबूद हुई कालर…….
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी