“अमलतास खिलता-मुस्काता”
सूरज की भीषण गर्मी से,
लोगो को राहत पहँचाता।।
लू के गरम थपेड़े खाकर,
अमलतास खिलता-मुस्काता।।
डाली-डाली पर हैं पहने
झूमर से सोने के गहने,
पीले फूलों के गजरों का,
रूप सभी के मन को भाता।
लू के गरम थपेड़े खाकर,
अमलतास खिलता-मुस्काता।।
दूभर हो जाता है जीना,
तन से बहता बहुत पसीना,
शीतल छाया में सुस्ताने,
पथिक तुम्हारे नीचे आता।
लू के गरम थपेड़े खाकर,
अमलतास खिलता-मुस्काता।।
स्टेशन पर सड़क किनारे,
तन पर पीताम्बर को धारे,
दुख सहकर, सुख बाँटो सबको,
सीख सभी को यह सिखलाता।
लू के गरम थपेड़े खाकर,
अमलतास खिलता-मुस्काता।।
— डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’