कविता

क्यों देश बेचते हो?

ओ देशद्रोही क्यों तुम, अपनों से खेलते हो?
क्यों देशद्रोह करके, मानवता बेचते हो?

जिस पर जन्म लिया है, जिसका हो पीते पानी,
उस मातृभूमि को तुम, क्या सोच बेचते हो?

जिसने तुम्हें दुलारा और दूध भी पिलाया,
उस मां की प्यारी ममता, निर्मम हो बेचते हो!

जब कष्ट से कराहे, जिसने तुम्हें उबारा,
उस प्रेममय पिता को, नादान बेचते हो!

जिसने गले लगाया, तुम्हें गिरने से बचाया,
उस स्नेही बंधु को भी, हैवान बेचते हो!

जिससे बंधाई राखी, वह बहिन भी लज्जाई,
उसकी पवित्रता को, हो भाई बेचते हो!

शहीदों ने खूं से सींचा, वीरों ने जिसको पाला,
अपने उसी चमन को, तुम आज बेचते हो?

लेखा कभी तो होगा, इस पाप और पुण्य का,
गठरी उठाए सिर पर, क्यों पाप बेचते हो?

है आज रुतबा अच्छा, कल की भी कोई सुध लो,
ईमानदार कहला, ईमान बेचते हो?

चांदी के चंद टुकड़े, कब तक बनेंगे साथी?
गद्दार हो वतन के, तुम आन बेचते हो?

जो बिक गया ये भारत, क्या तुम नहीं बिकोगे?
पहले वही बिकेंगे, जो देश बेचते हैं.

अब भी संभल ओ द्रोही, अब भी समय है बाकी,
यह देश है सभी का, क्यों देश बेचते हो?

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244