गज़ल
खोखले वादों से कब तक जिंदा रखें ईमानों को,
जीने की खातिर पैसा भी लाज़िम है इंसानों को,
भूखी जनता की जो पेट की आग बुझा ना पाओगे,
राख बना देगी इक दिन तुम्हारे दस्तरखानों को,
जाकर शहर जिन माँओं के बच्चे उनको भूल गए,
कितना रोईं हैं पूछो इन सीलन भरे मकानों को,
पलकें कभी बिछाते थे राहों में उनकी लेकिन अब,
माथे पर बल पड़ जाते हैं देखते ही मेहमानों को,
मासूमों की आह नहीं सुन पाए तो क्या मतलब है,
जितना चाहे सुनते जाओ आरती और अजानों को,
आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।