गज़ल
टेढ़े-मेढ़े रस्तों से गुज़रना भी ज़रूरी था,
सुधरने के लिए थोड़ा बिगड़ना भी ज़रूरी था,
मंज़िल सामने थी और हमदम था मेरा पीछे,
रूकना भी ज़रूरी था, चलना भी ज़रूरी था,
हिम्मत तो बगावत की थी भरपूर मुझमें भी,
मगर रस्म-ओ-रिवाजों से डरना भी ज़रूरी था,
संभलने के लिए तो उम्र सारी है अभी बाकी,
जवानी का तकाज़ा था फिसलना भी ज़रूरी था,
मुझे मालूम था कि लौट के आ ना सकूंगा पर,
मुहब्बत के समंदर में उतरना भी ज़रूरी था,
पत्थर के सीने का बोझ कम करने की खातिर,
गंगा का हिमालय से निकलना भी ज़रूरी था,
आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।