बालसाहित्य में विज्ञान लेखन
सृष्टि के सृजन के साथ-साथ सूर्य-चन्द्र तारे बनें चमके पेड़-पौधों का उद्भव हुआ मानव ने जन्म लेकर चलना फिरना घूमना सीखा अपने आस-पास को देखना समझना चाहा उसको अनुभव तर्क और प्रयोगों से भलीभांति जानने के क्रम में वह कब ज्ञान से विज्ञान की ओर मुड़ गया पता ही चला। आज का युग पूर्णतया वैज्ञानिक गतिविधियों पर आधारित है जिसमें बालक के आस-पास की समस्त गतिविधियां किसी न किसी रूप में विज्ञान या विज्ञान के आविष्कारों से जुड़ गयी हैं उसकी दिनचर्या खानपान रहन सहन बोलना चालना आपस में संभाषण करना योग्यता प्रतिभा का प्रदर्शन करना विज्ञान पर आधारित है उसकी सोच बदलाव की सही दिशा देने उसको तर्क पर कसने की मनोवृत्ति को शान्त करने उसको युग सापेक्ष आधुनिक विश्व के समक्ष आत्मविश्वास से भरकर खड़े होने के लिए आवश्यक हो जाता है कि बाल साहित्य मनोरंजन स्वाभाविक उपदश के साथ-साथ समयसापेक्ष विज्ञान का पुट लिए हो उसको संसार में घट रही नयी-नयी वैज्ञानिक गतिविधियों आविष्कारो खोजों अनुसंधानों प्रयोगों के साथ-साथ देष-विदेश के वैज्ञानिकों के व्यक्तित्व से परिचित कराता हो उसपर पाठ्यक्रe अधिकाधिक प्रतिभाप्रदर्शन हेतु अभिभावकों दबाब की भांति न होकर खेल-खेल में रोचकता से मनोरंजक ढंग से बाल साहित्य परोसा जाये ।उनमें लोकप्रिय विधाओं कहानी नाटक संवाद व शब्द वर्ग पहेली खोजो और जानों जैसी चीजे अधिक प्रभावी हो सकती हैं वैज्ञानिकों के जीवन वृत्त पर आविष्कारों पर आधारित पद्यकथायें चित्रकथाएं लुभा सकती हैं उनमें विज्ञान और वैज्ञानिकों के प्रति जिज्ञासा का भाव उत्पन्न कर सकती हैं।प्रेरक प्रसंग कम समय में कम स्थान लेकर अपनी बात कह देता है। प्रेरक प्रसंग जीवन को सहज ही प्रभावित करते हैं। इनको पढ़ते समय बच्चे सम्बन्धित के बचपन को जानने को प्रमुखता देते हैं गतवर्षों से बालभारती में छपने वाली प्रतिमाह एक वैज्ञानिक पर चित्रकथा बच्चों को खूब भा रही है।
आज का युग विज्ञान के धरातल पर खड़ा है वह सत्य और प्रमाणों का सहारा लेकर चलता है इसलिए बालरुचि और मनोवृत्ति के अनुकूल कल्पना और रहस्यमयी बातों का भी महत्व है यह निर्विवाद सत्य है। अन्तरिक्ष की बातें बताना उसमें उड़ान भरना बालसाहित्य की नई धारायें हैं जिन्हें अस्वीकार नहीं किया जा सकता। विज्ञान हमे अंधविश्वास से ऊपर उठकर तर्कसम्मत ढंग से सोचना सिखाता है हमारा प्रत्येक निर्णय, विचार और व्यवहार वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित होना चाहिए यह शिक्षा नयी पीढ़ी को बाल साहित्य द्वारा दी जानी चाहिए। राष्ट्रीय बालसाहित्य अकादमी के गठन के अवसर पर पं. जवाहर लाल नेहरू ने एक बात कही थी-‘मैं तो किसी भी क्षेत्र में किफायत करना पसन्द करूंगा यहां तक कि भोजन के क्षेत्र में किफायत की बात सोची जा सकती है पर बच्चों को बौद्धिक विकास का भोजन न मिले ऐसा विचार तो आना ही नहीं चाहिए।‘‘
निश्चय ही आज के विज्ञान परक बालसाहित्य के सन्दर्भ में अधिक प्रासंगिक लगते हैं और उस समय जब विज्ञान का दुरुपयोग चरम सीमा पर है विज्ञान के सदुपयोग के लिए विवेक दृष्टि की आवश्यकता है वह प्रदान करने में बालसाहित्य समर्थ है।यही नहीं आज का बालक अपने आस पास का सब कुछ जानने को उत्सुक है और बहुत सजग भी है इसलिए बहुत कुछ जानता भी है। चाहे वह अन्तरिक्ष की बातें हों या समुद्र के भीतर की खोंजें वह सबमें रुचि रखता है।साथ ही विज्ञान की प्रगति के साथ-साथ आज के बच्चे एक राज्य या देष के दायरे में नहीं हैं वे अब अन्र्तराष्ट्रीय मनुष्य बन चुके हैं। उनके सामने पूरे विश्व की तस्वीर उभर कर आती है। जिसको देखकर गांधी जी की यह बात गांठ में बांधनी होगी कि- मैं अपने घर की खिड़कियां खुली रखूंगा ताकि उससे चारों ओर से हवा आए पर मैं सावधान भी रहूंगा कि हवा का झोंका ऐसा न आए कि मेरे पैर उखड़ जाए और मैं उसके साथ बह जाऊं।अर्थात आज के बाल साहित्य में बच्चा और उसर्के अिभभावक दोनों के मानसिक दबावों के कारणों को खोजकर लेखक को उनके समाधान भी प्रस्तुत करने चाहिए। केवल मनोरंजन ही न कवि का कर्म होना चाहिए उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की ये पंक्तियां बालसाहित्य के उद्दश्ेय को भी बतलाती हैं।इसलिए आवश्यक यह है कि बालसाहित्य हमेशा सार्थक व सोद्देश्यपूर्ण होना चाहिए। साथ ही आज का पाठक वर्ग पहले सा नहीं है आज जब वह पढ़ने के लिए अपना समय व पैसा खर्च करता है तो अपनी ही पसंद को चुनता है। जिसके के कारण कई बार अच्छा साहित्य होकर भी बिकता नहीं है उसका प्रकाशन प्रसार-प्रचार नहीं हो पाता। आज कोई उसको प्राचीन ब्राह्मण की तीन ठगों वाली कहानी की भांति बकरी या गाय के बच्चे को कुत्ता बताकर ठग नहीं सकता। बल्कि उसको तो हमें आज के परिवेश में विज्ञापनों द्वारा एक ही झूठ को सौ बार दोहराकर अनावश्यक खरीदारी वाले मानस से भी दूर हटाना है जैसा कि मीडिया चैनलों के अति विज्ञापनों के माध्यम से ठगी चल रही है।इससे न केवल बालसाहित्य का सार्थकता सिद्ध होगी; अपितु विज्ञान से जुड़ने की प्रासंगिकता भी सिद्ध हो जायेगी।
बच्चों का मानसिक विकास ही हमारे सांस्कृतिक-वैज्ञानिक विकास का आधार है। इसलिए इसकों कहीं भी कभी भी अनदेखा नहीं किया जा सकता बल्कि इसके सृजन के अलावा अब तक के कार्यों प्रकाशन को संग्रहित कर गांव-गांव बच्चे-बच्चे तक पहुंचाने के सार्थक प्रयास करने और कराने चाहिये।इसके लिए विविध मंचों संस्थाओं अकादमियों और पत्र-पत्रिकाओं द्वारा आयोजित होने वाली चर्चायें संगोष्ठियां सेमीनार बड़े उपयोगी प्रमाणित हो सकते हैं।इनमें अधिकाधिक अभिभावकों-बच्चों की भी सहभागिता हो।उनको अपने मन और आवश्यकता की बात कहने का अवसर मिले। उनके किताबों से दूर होने-पढ़ने से भागने खेलते भी नहीं के कारण सामने आ सकें। उसके बाद उनकी उनके अन्दर बिखरी पड़ी इन सबके प्रति उदासीनता को दूर किया जा सके। उनकी संवेदनषीलता एवं सामाजिकता को आहत होने से रोककर मनुष्यता के लिए कल्याणकारी वैज्ञानिक सोच को जगाये उनको सद्दिशा दे विज्ञानबोध करायें। साथ ही एक- दो बालपत्रिकाओं को न जानकर छः सात को जानें। उनको पाने-पढ़ने को उत्सुक हां। जो उनका अभिभावक पांच-दस रूपये की बालपत्रिका न खरीदकर दो सौ-तीन सौ रूपये महीने केबिल में खर्च करता है। अपने बच्चों को विविध अवसरों पर बालपत्रिका खरीदकर उपहार में दे।उनके लिए अपना समय निकाले।