धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

उपवास

बहुत दिनों से एक संदेश रोज कहीं ना कहीं से आता है कि *अगर उपवास करने से भगवान खुश होते तो इस दुनिया में बहुत दिनो तक खाली पेट रहनेवाला भिखारी सबसे सुखी इन्सान होता, उपवास अन्न का नहीं विचारों का करें*। पहली ही दृष्टि में बहुत प्रभावित करने वाला संदेश लगता है सामाजिक सरोकारों से सराबोर लेकिन क्या वाकई में ऐसा है? मैं सोचता हूँ कि मन के साथ अन्न का उपवास भी अति आवश्यक है। पहली बात तो भूखा रहने में और उपवास करने में जमीन-आसमान जितना अंतर है। आदमी मजबूरी में भूखा रहता है जबकि उपवास स्वेच्छा से होता है। अन्न का हमारे विचारों पर बहुत प्रभाव पड़ता है। यूँ ही नहीं कहा गया कि *जैसा खाओ अन्न वैसा रहे मन*। भीष्म पितामह जैसे ज्ञानी पुरूष ने बाणों की शय्या पर ये स्वीकार किया था कि द्रोपदी पर भरी सभा में हुए अत्याचार का विरोध ना कर सकने का मूल कारण दुर्योधन का दूषित अन्न ग्रहण करना ही था।

उपवास का मूल अर्थ है निकट वास करना। अर्थात भगवान के ध्यान में इतना मग्न हो जाना, उनके इतने समीप होना कि खाने की सुधि ही ना रहे। यदि हम भूखे रहें चाहे अन्न के अभाव में या सामाजिक दबाव में, या किसी धार्मिक प्रभाव में तो हमारा मन खाने के आसपास ही घूमता रहेगा। शरीर तो भूखा रहेगा परंतु मन उस दिन ज्यादा भोजन करेगा क्योंकि पूरा दिन बस खाने के विचार ही आएँगे। ये कोई उपवास नहीं हुआ। उपवास न अभाव से होता है, न दबाव से होता है और न प्रभाव से होता है, उपवास तो केवल भाव से होता है। मेरा आप सबसे विनम्र अनुरोध है कि स्वयं भी भूखे मत रहिए और संभव हो तो किसी अन्य को भी भूखा ना रहने दीजिए लेकिन उपवास अवश्य कीजिए। उपवास आपके तन और मन दोनों को पवित्र कर देता है।

भरत मल्होत्रा

*भरत मल्होत्रा

जन्म 17 अगस्त 1970 शिक्षा स्नातक, पेशे से व्यावसायी, मूल रूप से अमृतसर, पंजाब निवासी और वर्तमान में माया नगरी मुम्बई में निवास, कृति- ‘पहले ही चर्चे हैं जमाने में’ (पहला स्वतंत्र संग्रह), विविध- देश व विदेश (कनाडा) के प्रतिष्ठित समाचार पत्र, पत्रिकाओं व कुछ साझा संग्रहों में रचनायें प्रकाशित, मुख्यतः गजल लेखन में रुचि के साथ सोशल मीडिया पर भी सक्रिय, सम्पर्क- डी-702, वृन्दावन बिल्डिंग, पवार पब्लिक स्कूल के पास, पिंसुर जिमखाना, कांदिवली (वेस्ट) मुम्बई-400067 मो. 9820145107 ईमेल- [email protected]