ग़ज़ल
मीना–ए-मय में’ मस्त सहारा शराब है
गुज़र गया है’ वक्त, नहीं अब शबाब है |
संसार में नहीं मिला दामन किसी का’ साफ
प्रत्येक चेहरा ढका, काला नकाब है |
इलज़ाम जो लगाया’ है’ उसका सबूत क्या
हिस्सा नही मिला यही केवल इताब है |
वह्काना’ बारदात घटित होती जीस्त में
यह जिंदगी सदैव दिखाती सराब है |
उजला धवल निशा में’ दिखाती अपूर्व रूप
यह वस्त्र पहनी’ है जो’ धरा माहताब है |
दुल्हन बनी रिझा रही’ आशिक है’ बावला
ये खूशबू-ए-रंग लगे ज्यों गुलाब है |
दुनिया में खौफ है विघटन का सही वजह
कोई डरा तो’ कोई’ निडर बेहिसाब है | |
कालीपद ‘प्रसाद’