इस्लामिक साम्राज्यवाद एवं उसका विस्तार : एक विश्लेषण
रिपब्लिक टीवी की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि जब से ज़ाकिर नाइक मलेशिया गया है तब से वहां के मुसलमान गैर मुसलमानों की धार्मिक मान्यताओं का विरोध करने लगे हैं। पहले सभी भाई चारे से रहते थे और आपस में उनके सम्बन्ध सौहार्द थे। मैं अर्नब गोस्वामी के इस वक्तव्य को सत्य तो मानता हूँ परन्तु अपूर्ण भी मानता हूँ। क्यूंकि ज़ाकिर नाइक तो इस्लामिक साम्राज्यवाद का केवल एक पात्र है। एशिया क्या पूरे विश्व में यह साम्राज्यवाद का विस्तार पूरे 1200 वर्षों से निरंतर चल रहा है। भारतीय महाद्वीप को ही लीजिये। हिन्दू बहुल भारत में कहने को मुसलमान अल्पसंख्यक है। मगर भारत के अतिरिक्त पाकिस्तान और बंगलादेश के मुसलमानों की आबादी को भी जोड़ लिया जाये तो हर दो हिन्दू के बदले एक मुसलमान का आंकड़ा बनता है।
इस्लामिक साम्राज्यवाद के विस्तार को समझने के लिए हमें कुछ तथ्यों को जानना आवश्यक है।
2005 में समाजशास्त्री डा. पीटर हैमंड ने गहरे शोध के बाद इस्लाम धर्म के मानने वालों की दुनियाभर में प्रवृत्ति पर एक पुस्तक लिखी, जिसका शीर्षक है ‘स्लेवरी, टैररिज्म एंड इस्लाम-द हिस्टोरिकल रूट्स एंड कंटेम्पररी थ्रैट’। इसके साथ ही ‘द हज’के लेखक लियोन यूरिस ने भी इस विषय पर अपनी पुस्तक में विस्तार से प्रकाश डाला है। जो तथ्य निकल करआए हैं, वे न सिर्फ चौंकाने वाले हैं, बल्कि चिंताजनक हैं।
उपरोक्त शोध ग्रंथों के अनुसार जब तक मुसलमानों की जनसंख्या किसी देश-प्रदेश क्षेत्र में लगभग 2 प्रतिशत के आसपास होती है, तब वे एकदम शांतिप्रिय, कानूनपसंद अल्पसंख्यक बन कर रहते हैं और किसी को विशेष शिकायत का मौका नहीं देते। जैसे अमरीका में वे (0.6 प्रतिशत) हैं, आस्ट्रेलिया में 1.5, कनाडा में 1.9, चीन में 1.8, इटली में 1.5 और नॉर्वे में मुसलमानों की संख्या 1.8 प्रतिशत है। इसलिए यहां मुसलमानों से किसी को कोई परेशानी नहीं है। इसे आप इस्लामिक साम्राज्यवाद का प्रथम चरण कह सकते है।
जब मुसलमानों की जनसंख्या 2 से 5 प्रतिशत के बीच तक पहुंच जाती है, तब वे अन्य धर्मावलंबियों में अपना धर्मप्रचार शुरू कर देते हैं। जैसा कि डेनमार्क, जर्मनी, ब्रिटेन, स्पेन और थाईलैंड में जहां क्रमश: 2, 3.7, 2.7, 4 और 4.6 प्रतिशत मुसलमान हैं। इसे आप इस्लामिक साम्राज्यवाद का द्वितीय चरण कह सकते है।
जब मुसलमानों की जनसंख्या किसी देश या क्षेत्र में 5 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है, तब वे अपने अनुपात के हिसाब से अन्य धर्मावलंबियों पर दबाव बढ़ाने लगते हैं और अपना प्रभाव जमाने की कोशिश करने लगते हैं। उदाहरण के लिए वे सरकारों और शॉपिंग मॉल पर ‘हलाल’ का मांस रखने का दबाव बनाने लगते हैं, वे कहते हैं कि ‘हलाल’ का मांस न खाने से उनकी धार्मिक मान्यताएं प्रभावित होती हैं। इस कदम से कई पश्चिमी देशों में खाद्य वस्तुओं के बाजार में मुसलमानों की तगड़ी पैठ बन गई है। उन्होंने कई देशों के सुपरमार्कीट के मालिकों पर दबाव डालकर उनके यहां ‘हलाल’ का मांस रखने को बाध्य किया। दुकानदार भी धंधे को देखते हुए उनका कहा मान लेते हैं।
इस तरह अधिक जनसंख्या होने का फैक्टर यहां से मजबूत होना शुरू हो जाता है, जिन देशों में ऐसा हो चुका है, वे फ्रांस, फिलीपींस, स्वीडन, स्विट्जरलैंड, नीदरलैंड, त्रिनिदाद और टोबैगो हैं। इन देशों में मुसलमानों की संख्या क्रमश: 5 से 8 फीसदी तक है। इस स्थिति पर पहुंचकर मुसलमान उन देशों की सरकारों पर यह दबाव बनाने लगते हैं कि उन्हें उनके क्षेत्रों में शरीयत कानून (इस्लामिक कानून) के मुताबिक चलने दिया जाए। दरअसल, उनका अंतिम लक्ष्य तो यही है कि समूचा विश्व शरीयत कानून के हिसाब से चले। इसे आप इस्लामिक साम्राज्यवाद का तृतीय चरण कह सकते है।
जब मुस्लिम जनसंख्या किसी देश में 10 प्रतिशत से अधिक हो जाती है, तब वे उस देश, प्रदेश, राज्य, क्षेत्र विशेष में कानून-व्यवस्था के लिए परेशानी पैदा करना शुरू कर देते हैं, शिकायतें करना शुरू कर देते हैं, उनकी ‘आॢथक परिस्थिति’ का रोना लेकर बैठ जाते हैं, छोटी-छोटी बातों को सहिष्णुता से लेने की बजाय दंगे, तोड़-फोड़ आदि पर उतर आते हैं, चाहे वह फ्रांस के दंगे हों डेनमार्क का कार्टून विवाद हो या फिर एम्सटर्डम में कारों का जलाना हो, हरेक विवादको समझबूझ, बातचीत से खत्म करने की बजाय खामख्वाह और गहरा किया जाता है। ऐसा गुयाना (मुसलमान 10 प्रतिशत), इसराईल (16 प्रतिशत), केन्या (11 प्रतिशत), रूस (15 प्रतिशत) में हो चुका है। इसे आप इस्लामिक साम्राज्यवाद का चतुर्थ चरण कह सकते है।
जब किसी क्षेत्र में मुसलमानों की संख्या 20 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है तब विभिन्न ‘सैनिक शाखाएं’ जेहाद के नारे लगाने लगती हैं, असहिष्णुता और धार्मिक हत्याओं का दौर शुरू हो जाता है, जैसा इथियोपिया (मुसलमान 32.8 प्रतिशत) और भारत (मुसलमान 22 प्रतिशत) में अक्सर देखा जाता है। मुसलमानों की जनसंख्या के 40 प्रतिशत के स्तर से ऊपर पहुंच जाने पर बड़ी संख्या में सामूहिक हत्याएं, आतंकवादी कार्रवाइयां आदि चलने लगती हैं। जैसा बोस्निया (मुसलमान 40 प्रतिशत), चाड (मुसलमान 54.2 प्रतिशत) और लेबनान (मुसलमान 59 प्रतिशत) में देखा गया है। शोधकत्र्ता और लेखक डा. पीटर हैमंड बताते हैं कि जब किसी देश में मुसलमानों की जनसंख्या 60 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है, तब अन्य धर्मावलंबियों का ‘जातीय सफाया’ शुरू किया जाता है (उदाहरण भारत का कश्मीर), जबरिया मुस्लिम बनाना, अन्य धर्मों के धार्मिक स्थल तोडऩा, जजिया जैसा कोई अन्य कर वसूलना आदि किया जाता है। जैसे अल्बानिया (मुसलमान 70 प्रतिशत), कतर (मुसलमान 78 प्रतिशत) व सूडान (मुसलमान 75 प्रतिशत) में देखा गया है। इसे आप इस्लामिक साम्राज्यवाद का पांचवा चरण कह सकते है।
किसी देश में जब मुसलमान बाकी आबादी का 80 प्रतिशत हो जाते हैं, तो उस देश में सत्ता या शासन प्रायोजित जातीय सफाई की जाती है। अन्य धर्मों के अल्पसंख्यकों को उनके मूल नागरिक अधिकारों से भी वंचित कर दिया जाता है। सभी प्रकार के हथकंडे अपनाकर जनसंख्या को 100 प्रतिशत तक ले जाने का लक्ष्य रखा जाता है। जैसे बंगलादेश (मुसलमान 83 प्रतिशत), मिस्र (90 प्रतिशत), गाजापट्टी (98 प्रतिशत), ईरान (98 प्रतिशत), ईराक (97 प्रतिशत), जोर्डन (93 प्रतिशत), मोरक्को (98 प्रतिशत), पाकिस्तान (97 प्रतिशत), सीरिया (90 प्रतिशत) व संयुक्त अरब अमीरात (96 प्रतिशत) में देखा जा रहा है। इसे आप इस्लामिक साम्राज्यवाद का छठा चरण कह सकते है।
यूरोप के अनेक देशों में प्रजनन दर संसार के सभी देशों में सबसे कम हैं। ऐसे में भारी संख्या में मुस्लिम शरणार्थी उन देशों के पर धर्म के आधार जनसंख्या के समीकरण को किस प्रकार से प्रभावित करेंगे इसका अनुमान लगाना सरल हैं। किसी भी मुस्लिम देश ने जिनकी सीमा तक सीरिया से लगती थी एक भी शरणार्थी को अपने यहाँ पर शरण क्यों नहीं दी? क्या इसे इस्लामिक साम्राज्यवाद का फैलाव करने की सोची समझी साजिश नहीं कहा जायेगा?
मलेशिया में गैर मुसलमानों का जो उत्पीड़न आरम्भ हुआ है। वह इसी इस्लामिक साम्राज्यवाद के फैलाव का अगला चरण ही है। जो जो देश इस्लामिक साम्राजयवाद के आरम्भिक चरणों में है। उन्हें यह सोचना होगा कि भविष्य को लेकर उनकी रणनीति क्या होगी।
इसलिए भारत में इस्लामिक साम्राज्यवाद के विस्तार को अगर रोकना है तो हमारे देश के राजनेता सेक्युलरवाद और अल्पसंख्यकवाद की जहरीली सोच से ऊपर उठकर सोचना होगा। यह तभी संभव है जब हमारे देश के के हिन्दू जात-पात, बाहुबल, दबंगई आदि से ऊपर उठकर वोट देना आरम्भ करेंगे। अंत में समझदार को ईशारा ही बहुत होता है।
— डॉ विवेक आर्य