बांसुरी
बांसुरी वादन से
खिल जाते थे कमल
वृक्षों से आँसू बहने लगते
स्वर में स्वर मिलाकर
नाचने लगते थे मोर
गायें खड़े कर लेती थी कान
पक्षी हो जाते थे मुग्ध
ऐसी होती थी बांसुरी तान
नदियाँ कलकल स्वरों को
बांसुरी के स्वरों में मिलाने को थी उत्सुक
साथ में बहाकर ले जाती थी
उपहार कमल के पुष्पों के
ताकि उनके चरणों में
रख सके कुछ पूजा के फूल
ऐसा लगने लगता कि
बांसुरी और नदी मिलकर करती थी कभी पूजा
जब बजती थी बांसुरी
घन ,श्याम पर बरसाने लगते
जल अमृत की फुहारें
अब समझ में आया
जादुई आकर्षण का राज
जो की आज भी जीवित है
बांसुरी की मधुर तान में
माना हमने भी
बांसुरी बजाना पर्यावरण की पूजा करने के समान है
जो की हर जीवों में
प्राण फूंकने की क्षमता रखती
और लगती /सुनाई देती है
हमारी कर्ण प्रिय बांसुरी
— संजय वर्मा “दृष्टि”