ग़ज़ल
मुमकिन पहरे तुमसे मिलने जाने में
रोक सकोगे क्या ख़्वाबों में आने में
सारे फ़न हैं मुझमें उसको लगता है
उलझी है वो दुनिया को समझाने में
मैं लौटा तो छूट गयी मेरे पीछे
एक उदासी उसके ठौर ठिकाने में
एक नज़र दिख जाऊँ तो खिल खिल जाती
जाने क्या दिख जाता मुझ दीवाने में
शायद फिर गुज़रे हैं वो उन गलियों से
छू से गये अहसास वही अनजाने में
नाम लबों तक लाकर बात बदल देते
कितनी आगे हो तुम बात बनाने में
दिल धड़कन सब नाम तुम्हारे लिख डाला
क्या रक्खा अब मिलने और मिलाने में
:प्रवीण श्रीवास्तव ‘प्रसून’