“गज़ल”
वज़्न- 1222 1222 1222 1222, काफ़िया- आह, रदीफ़- हो जाए
न जाने किस गली में कब सनम गुमराह हो जाए
बहुत है राह में खुश्बू महक हमराह हो जाए
दिवानों की अजब दुनियां बना लेते ठिकाने भी
महफिलें खुद नहीं सजती पहल चरगाह हो जाए।।
ठिकानों की हकीकत को भला रहगीर क्या जाने
सरकती रात गुजरी है पहर परवाह हो जाए।।
टिंगाने के लिए दरपन कई दीवार उठ जाती
महकमे के बिना कैसे परत तनखाह हो जाए।।
भुलावे में भटक जाते भले अनजान शहरों में
पकड़ लेती लपक गलियां समय चरवाह हो जाए।।
उलझ जाती करारी धुन जुदा होकर सितारों से
नए जब भाव मिल जाते नयन निरवाह हो जाए।।
अभी निकला यहीं से जूंझ कर गौतम गिलाओं से
बुला लो दूर ना जाए गरज मनचाह हो जाए।।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी