“उलझा है ताना-बाना”
जीवन की हकीकत का, इतना सा है फसाना
खुद ही जुटाना पड़ता, दुनिया में आबोदाना
सुख के सभी हैं साथी, दुख का कोई न संगी
रोते हैं जब अकेले, हँसता है कुल जमाना
घर की तलाश में ही, दर-दर भटक रहे हैं
खानाबदोश का तो, होता नहीं ठिकाना
अपना नहीं बनाया, कोई भी आशियाना
लेकिन लगा रहे हैं, वो रोज शामियाना
मंजिल की चाह में ही, दर-दर भटक रहे हैं
बेरंग जिन्दगी का, उलझा है ताना-बाना
अशआर हैं अधूरे, ग़ज़लें नहीं मुकम्मल
दुनिया समझ रही है, लहजा है शायराना
हो हुनर पास में तो, भर लो तमाम झोली
मालिक के दोजहाँ में, भरपूर है खजाना
लड़ते नहीं कभी भी, बगिया में फूल-काँटे
सीखो चमन में जाकर, आपस में सुर मिलाना
दिल की नजर से देखो, मत “रूप”-रंग परखो
रच कर नया तराना, महफिल में गुनगुनाना
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(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)