कविता : किसान का दहेज
उस किसान की सूनी आँखें,
देख रही सूखी खेती को
दहेज कम मिलने पर,
घर लौट आई भोली बेटी को
एक वर्ष पहले –
सात साल की उम्र में,
जिस बेटी का –
कर दिया था विवाह,
आज वह घर लौट आई है
माँ से पूछती है –
माँ! माँ! यह दहेज क्या होता है?
कहाँ मिलता है?
मुझे भी दहेज ला दो न माँ,
मैं भी ससुराल जाऊँगी
सासु माँ कहती है –
दहेज बिना मत आना तुम
माँ! सुनो न!
इस बार के हाट बाजार से
हम भी दहेज खरीद लेगें
मैंने कभी नहीं देखा माँ,
तुम को भी साथ चलना होगा
बेटी की भोली बातें सुन,
माँ संज्ञा शुन्य हो जाती है
एकटक निहार बेटी का चेहरा,
अश्रुधार बहाती है
माँ को रोता देख बेटी,
दुखी हो कर कहती है
माँ मैं दहेज न लूंगी
सास को समझा दूंगी,
पर तू इतना तो बता दे माँ,
यह दहेज कैसा होता है?
किसान सुन रहा बड़े ध्यान से,
माँ बेटी की बातों को
बोला बेटी यह दहेज – मेरा घर, खेत- खलिहान,
और तेरी किस्मत होता है
तू बहुत भोली है बेटी,
कैसे समझाऊँ तुझको
दहेज एक राक्षस है,
जो बेटियों को खा कर,
अपनी भूख मिटाता है
अगर न दिया तुझको दहेज
तो तुझको भी खा जाएगा
पिता की बात सुनकर
बेटी रोने लगती है
माँ, मैं ससुराल नहीं जाऊंगी
राक्षस से बहुत डर लगता है मुझे
मैं तेरे घर पर ही रहूंगी,
तेरा मै सब काम करुंगी,
नहीं तुझे मैं तंग करुंगी,
खेत में भी काम करुंगी,
पर मैं ससुराल नहीं जाऊँगी
बेटी की बातें सुन –
किसान तड़प उटता है
झटपट अपनी बिटिया के,
दहेज की तैयारी में लग जाता है
पहले बैलों की जोड़ी बेचूँ,
या घर को बेच डालूँ
पर बैल बिना खेती कैसे,
और घर बिना रहूँ कहाँ ?
यह प्रश्न किसान को खाए जाता,
ससुराल बिटिया को कैसे भेजूँ.?
कैसे उसका दहेज सहेजूँ. ?
खेती भी सूख गई है ,
बिटिया भी रूठ गई है
रोती बिटिया न देख सकूँ ,
क्यों न जीवन का अंत करूँ
क्यों न —
जीवन का अंत करूँ
— निशा गुप्ता