लघुकथा

दोगली सोच

एक बुढिया बाजार से बाहर एक टूटी फूटी झोपडी में एक आठ साल के बच्चे के साथ जो शायद उसका नाती था , सब्जी बेचकर किसी प्रकार उस बच्चे तथा अपना भरण पोषण कर रही थी / बच्चे को एक पल के लिए भी कंही नहीं छोडती थी , हमेशा अपने साथ रखती थी / दुर्योग से लड़का सर्प दंश से कालकवलित हो गया / बुढ़िया बहुत रोई गई छाती पीटी लेकिन न कोई सुनने आया न समझाने ! अंत में बुढ़िया तीसरे दिन फिर अपने रोजी रोजगार में लपट गई / देखने वाले बुदबुदाने लगे की देखो अभी लड़का मरे दो दिन भी नहीं हुआ सब गम भूल गई , कलयुग है इसका सब लाड प्यार दिखावटी था / उसी शहर में एक बड़े धनाढ्य सेठ थे जिनका बहुत नाम था / उनका एक एकलौता पुत्र था जो किसी अज्ञात बिमारी से मर गया / सेठ जी के यहाँ कोहराम मच गया , सांत्वना देने वालो का तांता लग गया , एक दी बाजार की दुकाने बंद राखी गई / दुसरे दिन सेठ स्वयं दूकान खोलकर बैठ गए , जो भी आता सेठ जी की भूरी भूरी प्रसंशा करता , कहता की सेठ जी कितने कर्तब्य परायण है , कितने कर्मनिष्ठ है , कितना उच्च बिचार है की जो चला गया वह तो आयेगा नहीं फिर कर्म का परित्याग क्यों किया जाय !

राजेन्द्र प्रसाद पाण्डेय

रिटायर्ड उत्तर प्रदेश परिवहन निगम वाराणसी शिक्षा इंटरमीडिएट यू पी बोर्ड मोबाइल न. 9936759104