सीढ़ी
जानी-पहचानी घर की सीढ़ी
जिसके सौपानों पर नित्य का
मेरी सखी का आना – जाना लगा रहता है
आज यही सीढ़ी उसके लिए
बेरहम निकली
वह चढ़ भी न पायी कि
वहीं पर गिर गयी
कमर पर पड़ी
वक्त की ऐसी मार
खड़ी भी नहीं हो सकती
न लेट सकती हूँ
दर्द के अंगारे , पीड़ाओं की आग और बेचैनी के भंवर में
फ़ंसी जिंदगी से
जैसे उसका खुदा रूठ गया हो
जैसे जीवन की रीढ़ टूट गयी हो
वैरन बनी रात – दिन के दर्दीले दर्द
सोने नहीं देते हैं
कर्मन की गति का बेरहम दर्द को
कोई जन , मन बाँट भी नहीं सकता
जीवन की बहारों को
पीड़ाओं का पतझड़
जीवन को लील रहा
दर्द का दुपट्टा
तन – मन को
जकड़ रहा
जीवन की कड़ी परीक्षा में
पीड़ाओं के पहाड़ को
सहनशीलता की कुल्हाड़ी से काट के
धैर्य के लिबास में
दर्द को ओढ़
वक्त की दी वेदनाओं को
जीवन की लय-ताल के वास्ते
वक्त के दिए दर्दीले जख्म को
सांत्वना के मरहम से मंजु पाट ।
— मंजु गुप्ता
वाशी , नवी मबई