गरीबी
मंजीरे बज रहे थे ,पर सांसें उदास थी ।
ढोलक की थाप पर बेसुरों की आग थी ।
रोटियों की आवाज ने भूख को आवाज दी ।
पेट की भूख ने घुंघरुओं को मात दी ।
चूल्हे की आग ठंडी होना मुश्किल था ,
पर दिलों में गुलामी का एक डर भी था ।
सहम रहा था सन्नाटा भी भूख से दोपहरी में ,
नजरों में सिर्फ रोटी और प्याज थी ।
— वर्षा वार्ष्णेय, अलीगढ़