कविता : औंरत को तबायफ बनाता है कौन ?
उन रंगीन महफिँलो की , नुमाइश बनके रह गई औरत ।
मिलती आज , हर गली नुक्कड़ चौराहेँ पे तबायफ ।।
मै ! पूछती हुँ , आखिर औंरत को तबायफ बनाता है कौन ?
उन बदनाम गलियों .. बाजारो तक इन्हें ले जाता है कौन ?
जिस्म फरोशी के, ये धंधे आखिर करवाता कौन ?
इन मर्दो के सिवा, किमत इनकी लगाता है कौन ?
ऐयाश मर्द ,दूनियाँ मे सारे, है मगर बदनाम तबायफ ।
इन बदजात मर्दो को , आखिर ये आइना दिखलाएगा कौन ?
बदँ कराने वाले ही, गर चलाएगेँ बाजार ऐ कारोबार …
मै ! पूछती हुँ ..आखिर जिस्मे बाजार बंद कराऐगा कौन ??