कविता : रचना
खुबसूरत रचना का , गुनाह ही क्या था ?
सुलझी थी , वो ! मगर किसी ने समझा न था ॥
पढ़ा तो , हर मुखड़ा ..हर मिसरा उसका ।
मगर’ दिल किसी ने शायद समझा ही न था ॥
नादान थी ! मगर जिंदगी वो ! समझा रही रचना ।
लिख के आसू अपने , दुनियाँ को कुछ सिखा रही ॥
अपना हर दर्द कहती … लिख , वो ! रचना ।
मगर दर्द में उतर, उसे किसी ने , समझा ही न था ॥
यूँ तो जिन्दगी की सुलझी … किताब थी , वो ।
मगर , सफे पलट के , किसी ने देखा ही न था ॥
शायद , आत्मा से लिखती थी , वो ! रचना ।
मगर उसकी आत्मा को , किसी ने पढ़ा ही न था ॥॥