मेरे मानहानि का मामला !
उस दिन आफिस की डाक मार्क करते-करते अचानक एक शिकायतनुमा पत्र पर मेरी नजर ठहर गयी। एक ही झटके में या कहिए पूरा पत्र अपलक पढ़ गया था। पढ़ते ही दिमाग भन्ना गया था। घंटी दबाई और दबाता ही चला गया। हड़बड़ी में चपरासी सामने आ खड़ा हुआ, मैंने तत्काल कार्यालय सहायक को हाजिर कराने का फरमान सुनाया।
कुछ ही क्षणों में सामने की कुर्सी पर बैठे हुए अपने कार्यालयाधीक्षक को पत्र पकड़ाते हुए कहा-
“लीजिए जरा इसे पढ़िये तो..!”
“सर ! अभी तक तो उस प्रकरण पर कोई डिसीजन ही नहीं हुआ है…यह शिकायत तो फर्जी है…सरासर आपके मानहानि का मामला बनता है।”
मेरे ओ एस ने पत्र में अभिव्यक्त मेरी शिकायत की गंभीरता को आँकते हुए कहा था।
“मैं इस शिकायतकर्ता के विरुद्ध थाने में एफआईआर करके हाईकोर्ट में मानहानि का दावा करुँगा..!” मैं भन्नाए हुए स्वर में बोला था।
“देखिए सर, आप परेशान मत होइए, पहले शिकायतकर्ता को नोटिस भेजकर शिकायत के सम्बन्ध में साक्ष्य मांगते हैं, फिर उसके विरुद्ध विधिक कार्यवाही की जाए..!”
ओ एस ने अपनी बात जारी रखते हुए मुझे बताया –
“वैसे सर, इस शिकायतकर्ता की यही आदत है…इसी तरह शिकायत कर यह लोगों को ब्लैकमेल करता है..! सूचना आयोग तक पहुँच जाता है।”
शायद बड़े बाबू ने अपने अनुभव के आधार पर कहा था।
“देखिए! जब ब्लैक होगा, तब न मेल होगा…! वैसे भी हम ब्लैकमेल में विश्वास नहीं करते..और न होते हैं..आप एक तगड़ी नोटिस बनाईए…मैं भी उसे बताउंगा कि किससे पाला पड़ा है..!!” मैंने लगभग गुस्से में कहा था।
इसके बाद शिकायतकर्ता को मैंने एक तगड़ी नोटिस जारी करा दिया था।
इधर अपने एक परिचित वकील-मित्र को फोन लगाया और हलो-फलो के बाद हमारी बातचीत शुरू हुई –
“देखो यार…एक मेरे मानहानि का मामला है…कोर्ट में केस फाइल करनी है..।” पूरी बात से अवगत कराते हुए मैंने कहा था।
“हूँ…..तो, कितने तक के मानहानि का दावा ठोंकें…?” उधर से वकील मित्र की आवाज थी।
“अरे यार वकील तुम हो कि मैं..! इस केस में जितने का दावा बनता हो उतना ठोक दो..वैसे तुम मेरे मित्र भी हो..मेरे मानहानि का आकलन तो कर ही सकते हो।” कुछ भन्नाहट में मैंने कहा।
“हाँ वकील तो मैं हूँ ही…लेकिन मानहानि तुम्हारी हुई है…तुम्हीं आँक सकते हो कि तुम्हारी कितने की मानहानि हुई है…एक बात और है, तुमसे तो मैं अपने वकालतनामे का फीस भी नहीं लुँगा…लेकिन मुंशी-उंशी रखने का कुछ खर्चा-वर्चा तो पड़ता ही है….तो, ऐसा करना जितने की मानहानि आँकना उसमें बीस हजार और जोड़कर बताना….उतनई का मानहानि-दावा कर देंगे…!”
इतना कह कर वकील मित्र ने फोन काट दिया था।
उधर फोन कटा और इधर मैं, मेरे मान को पहुँची क्षति का आकलन करने लगा था। इसी माथापच्ची में कुर्सी पर बैठे-बैठे ही न जाने कब मुझे नींद आ गई थी।
जज सहब के सामने गवाहों के कटघरे में मैं खड़ा था… जज साहब ने मुझसे पूँछा –
“हाँ तो मिस्टर….आपने, अपने मान की हुई हानि का यह आकलन कैसे किया…? किन सबूतों के आधार पर और किस तरीके से…?”
“मी लार्ड! मेरा मान है…मैं जन्म से मानिंद हूँ ….अपने मान के बल पर ही इस मान-दार पद को सुशोभित कर रहा हूँ…मुझे शिकायतकर्ता के आरोप पर पदच्युत होना पड़ सकता है और मेरा मान-दान जाता रहेगा….मेरी आय प्रभावित होगी…यही नहीं मी लार्ड! स्वयं को पुनर्स्थापित करने और ऊपर से नीचे तक पाक-साफ सिद्ध करने और कराने तक मुझे भारी वित्तीय क्षति उठानी पड़ेगी…इसी हर्जे-खर्चे को शिकायतकर्ता से दिलवाया जाए।”
जज को प्रभावित करने हेतु लगभग दीनता के भाव लाते हुए मैंने अपनी गवाही में कहा।
“मिस्टर..सो तो ठीक है…लेकिन आपके प्रस्तुत मानहानि के हिसाब में दावे में बीस हजार अधिक क्यों है? उसके बारे में आपने कुछ नहीं बताया ..!!”
तीखी नजरों से घूरते हुए न्यायमूर्ति ने मुझसे पूँछा।
माननीय न्यायमूर्ति (जिनका मान अक्षुण्ण रहता है, वही माननीय होते हैं) की इस पृच्छा पर मैं थोड़ा हड़बड़ाया तो जरूर लेकिन अगले ही पल सँभलते हुए बोला –
“मी लार्ड…! मेरे मानहानि में प्लस यह बीस हजार रूपया हमारे बेचारे वकील साहब के आफिस के सेटअप का है…जिसे मैं वकील साहब को दे दुँगा…वेैसे वे संकोचवश हमसे फीस नहीं लेते..!”
मेरी इस गवाही पर जज साहब नाखुश से हो गए और मेरे वकील-मित्र से मुखातिब होते हुए कहा –
“वकील साहब! आप और आपके ये मुवक्किल दोनों काले धन के सृजन में लगे हुए प्रतीत होते हैं…वादी ने अपने शपथपत्र में मानहानि से एक्सेस बीस हजार रूपए का हिसाब छिपाया है…ऐसी स्थितियों में क्या पता वादी मुकदमा जीतने के बाद आपको यह रूपया न दे और यदि दे भी तो इस धन को आप अपना काला-धन बना लें…! दोनों ही स्थितियों में यह काले-धन का मामला बनता है….फिर क्यों न आप और आपके मुवक्किल यानि कि वादी, दोनों के अर्जित सम्पत्ति की ईडी और इनकमटैक्स विभाग से जाँच करा ली जाए…? इस जाँच के बाद ही कोर्ट वादी के मानहानि आकलन के सही निष्कर्ष पर पहुँचेगा…इसी के साथ आज का कोर्ट एड्जर्न किया जाता है।”
जज साहब के इस निर्णय पर भौंचक हो मेरे वकील-मित्र अपना दलील पेश करने लगे थे –
“मी लार्ड…. मी लार्ड…! जरा मेरी भी सुनिए… मेरे मुवक्किल ने कोर्ट के समक्ष मानहानि का झूँठा शपथ-पत्र प्रस्तुत किया है…इसके लिए मेरे मुवक्किल को जेल भेजा जाए….न कि मेरे सम्पत्ति की ईडी और इनकमटैक्स विभाग से जाँच करायी जाये…! यह काले-धन का नहीं स्वयं वादी के झूठ बोलने का मामला है।”
लेकिन, जज साहब जा चुके थे…वकील मित्र ने दौड़कर मेरा कालर पकड़ लिया था। मैं मित्र से अपने गवाही पर माफी मांगते हुए कहे जा रहा था –
“यार मैं भी तो ईडी और इनकमटैक्स की जाँच में नहीं फंसना चाहता… इसके बदले झूँठा हलफनामा देने के आरोप में जेल जाने के लिए भी तैयार हूँ… तैयार हूँ…”
मेरा फालोवर मेरे कुर्सी का तौलिया ठीक करते हुए कह रहा था “ तो फिर चलिए साहब, छह भी बज गये हैं आफिस से सभी जा चुके हैं…” न जाने कब आफिस की एसी में कुर्सी पर बैठे-बैठे ही मुझे नींद आ गई थी।
एक दिन आफिस सुपरिंटेंडेंट मेरे समक्ष स्वयं हाजिर हुए और कुर्सी पर बैठते हुए बोले थे –
“साहब, शिकायतकर्ता ने नोटिस का जवाब दे दिया है अपने आरोपों के संबंध में उसने कोई साक्ष्य नहीं दिया है, बस गोल-गोल बाते ही लिखा है…मानहानि के बारे में किसी वकील से बात कर लिया है न..?”
“अरे बड़े बाबू! छोड़िए…जनहित में मानहानि का दावा हम नहीं करेंगे…शिकायतें होती रहें, इसी में शिकायतकर्ता से लेकर हम सब का लाभ है..!”
मैंने अब तक अपने मानहानि के दावे का हिसाब लगा लिया था। मुझे दावे करने में ही हानि ज्यादा नजर आया था और इसके मुकाबले मेरे मान में हानि नहीं हुई थी। इसीलिए दबी हुई मुस्कुराहटों के साथ प्रकरण को समाप्त करने के उद्देश्य से मैंने लाभ की बात कही।