सामाजिक

मातृदिवस बनाम मदर्स डे – एक विश्लेष्ण

     मातृदिवस पर विचारणीय प्रश्न है- आखिर नारी का मातृरुप क्यों महान है ? मेरी व्यक्तिगत समझ से – किसी भी सम्प्रदाय में, जिसे परमसत्ता, जगन्नियन्ता, खुदा, गॉड, आदि कई नामों से इंगित करते है, जिनके लिए पारिभाषिक शब्दों के रुप में- असीम, अजन्मा, अगोचर, अक्षम, सर्वज्ञ और सर्वेश्वर आदि जैसे शब्दजाल सदियों से प्रयुक्त किये जाते रहे हों, उस चैतन्य परम ईश्वर तत्व को  नारी ही सक्षम है- अजन्मा को जन्म देने में, अगोचर को संसार में गोचर कराने में, असीम को शरीर तक सीमित करने में, अक्षम को सक्षम करने में। यदि वो सत्ता सर्वज्ञ है तो , नर  हो या नारी स्वयं दिल की धड़कन से लेकर बुद्धि विलास और मन में अनवरत भावों के गिरते-उठते तरंगों तक को स्वयं ही उस चैतन्य परम सत्ता के एक अदृश्य अंश के जरिये ही जानता है। और उस सत्ता को अपनी शरीर में स्थित चैतन्य सत्ता से नौ महीने शरीर में पोषण प्रदान करती हुई ईश्वरीय सत्ता के निमित्त प्रयुक्त होनेवाले शब्दों के विपरीत संसार दिखाने का श्रेय स्त्रीरूपा मातृस्वरूप को जाता है। इसलिए भी सृष्टि में माँ महान है, साकार ब्रह्म के रूप में पूजनीय है। सभी सांसारिक ऋणों  से मुक्त हुआ जा सकता है पर, मातृऋण से उऋण असम्भव है।
     किसी भी नवनिर्माण में दो मुख्य कारक होते है- एक उपादान कारण और दूसरा निमित्त कारण यथा- मिट्टी और कुम्हार। जहाँ मिट्टी उपादान कारण है वहीं कुम्हार निमित्त कारण। वैसे ही सृष्टि को संचालित रखने के निमित्त स्त्री और पुरुष। स्त्री और पुरुष के शरीर में पूर्वजों के संस्कारों से पोषित बीज रूप में स्थित असीम और अगोचर चैतन्य सत्ता के रूप में स्थित चैतन्य ब्रह्म उपादान कारण है तो नारी रूप में मातृत्व की क्षमता निमित्त कारण और इसी निमित्त कारण के फलस्वरुप ही नारी पूज्या एवं महान है। जिसके प्रमाण स्वरुप गर्भस्थ शिशु का गर्भनाल द्वारा पोषण के साथ चैतन्यता के अनवरत प्रवाह को समझा जा सकता है जो शिशु को जीवन पर्यन्त प्राप्त होता रहता है। साथ ही इसी क्षमता के आभाव के कारण पितारुप पुरुष का स्थान शायद,  माता की तुलना में कमतर आंका जाता है।
      और आज उसी देश में, वर्तमान परिवेश में नारियों को मात्र भोग्या का दर्जा प्राप्त हो कितने शर्म की बात है। क्या वर्तमान परिवेश पर पश्चिमी सभ्यता और सोच का साया नहीं है ? जिस देश और संस्कृति का उद्घोष “मातृवत परदारेषु” का स्पष्ट उद्घोष रहा हो वहीं क्षणिक कामवासना की पूर्ति के लिये नारी की निर्दयतापूर्वक हत्या तक कर दी जाय। ये कैसी विडंबना ? ये कैसी विनाशकारी बुद्धि का सृजन ? माना कि नभचर, जलचर और मनुष्य को छोड़कर थलचर की सभी प्रजातियाँ प्रकृति में, प्रकृति से जीती हैं वहीं अकेला मनुष्य जाति को संस्कृति में जीने का अधिकार मानवता से प्राप्त है। पर, ऐसा होता नहीं दीखता। वर्तमान, आधुनिक और पाश्चात्य सभ्यता के धूमिल छाँव तले अस्त होने को आमादा है।
    पाश्चात्य सभ्यता ने सदा से ही नारी को भोग्या से अधिक कभी नहीं माना। 1950 तक जहाँ विश्व के समृद्ध देशों में नारियों को बैंक खाते तक खोलने के अधिकार से बंचित रखा गया। आज उन्हीं के द्वारा साल में एक दिन मातृदिवस मनाने का प्रस्ताव रखा गया और सर्वमान्य होकर प्रचलन में भी आ गया। इसे संस्कृति को अस्ताचलगामी के सिवाय और क्या कहा जाय ?
    आज, वर्तमान को जरूरत है मानवता को बचाये रखने के निमित सनातन संस्कृति में जिये और मानवता को अक्षुण्ण रखने हेतु नारी की सुरक्षा और सम्मान के निमित्त सदैव सतर्क रहे। अन्यथा सुर असुर का अन्तर ही समाप्त हो जाएगा। भारतीय संस्क्रति ही नहीं बल्कि सर्वमान्य मानवीय वैश्विक संस्कृति ही नष्ट-भ्र्ष्ट हो जाएगी।
 — स्नेही “श्याम”

श्याम स्नेही

श्री श्याम "स्नेही" हिंदी के कई सम्मानों से विभुषित हो चुके हैं| हरियाणा हिंदी सेवी सम्मान और फणीश्वर नाथ रेणु सम्मान के अलावे और भी कई सम्मानों के अलावे देश के कई प्रतिष्ठित मंचों पर अपनी प्रस्तुति से प्रतिष्ठा अर्जित की है अध्यात्म, राष्ट्र प्रेम और वर्तमान राजनीतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों पर इनकी पैनी नजर से लेख और कई कविताएँ प्रकाशित हो चुकी है | 502/से-10ए, गुरुग्राम, हरियाणा। 9990745436 ईमेल[email protected]