राजनीति

देश की दशा-दिशा

विचारकों और चिंतकों के बीच वर्तमान का ज्वलन्त प्रश्न उभरकर विकरालता का रूप ले रहा हो तो निश्चित ही विचारणीय हो जाता है | तो किसी भी समाजिक विचारकों के लिए आवश्यक हो जाता है कि वर्तमान समस्याओं पर निष्पक्षता से विचार करे और समाधान भी सुझाए | यहां सबसे पहले देश की दशा पर विचार करणा लाजमी हो जाता है |

अस्पतालों और चिकित्सकों के निजी निवासों पर करें गौर तो सुखी हड्डियों और अतिमांसल शरीरधारी हताश और निराश अवस्थाओं में घूमते भीड़ नजर आएंगे। जो आर्थिक और शारीरिक रुग्णता की दशा को दर्शाता है। जब देश का देह (शरीर) दशा ही अस्वस्थ रहेगा तो चिंतन दशा कितना और कैसा  स्वस्थ होगा, अनुमानित हैं। इसीके दूसरे पहलू को देखें तो हर भारतीय को बीमार रखने के उद्देश्य से खान-पान में अवांछित विष की अनिवार्यता को भी नकारना मुश्किल होगा। साथ ही काम- क्रोध को उत्तेजित करनेवाले कारकों का खुलकर मानव शरीररूपी प्रयोगशाला के रूप में भोजन के स्वाद निर्धारितकर फास्टफ़ूड तथा अन्य खाद्य सामग्री के रूप में प्रचारित भी किये जा रहे हों। प्रमाण स्वरूप सरेआम खुलेआम सड़क पर बढ़ते लूट, बलात्कार से हत्या तक कि घटनाओं में बृद्धि को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता।

इतना ही नहीं सत्ता द्वारा आर्थिक दोहन के रूप में नशे को स्रोत बनाकर यथा- शराब, दारू, आदि को आधारभूत आवश्यक आर्थिक स्रोत के रूप में कई दशकों पूर्व आर्थिकनीति में शामिल कर लेने की उन रहनुमाओं की दूरदर्शिता का परिणाम है |  जिन्होंने स्वार्थवश अर्थलोलुपता के आग में, विकास के नाम पर, घी डालने का ही काम किया | जिसके फलस्वरूप नशा एक सामाजिक विकृति के रूप में क्या बच्चे, क्या जवान, क्या बुजुर्ग सभी आयुवर्ग के लोग आक्रान्त होते चले गये | वर्तमान तो एक प्रतिष्ठित व्यक्तित्व के लिए आवश्यकता सी बन गयी है | तब ही तो किसी भी सामाजिक कृत्य जैसे शादी या अन्य छोटे-मोटे समारोहों में भी शराब परोसने की परम्परा सी चल पड़ी है | जो समाज ही नहीं बरन, मानवता के लिए अभिशाप बनती जा रही है | जहाँ एक ओर कुछ सरकारें भी बिखरते समाज और परिवार को अभिशप्त जिन्दगी से उबारने के निमित्त शराबबंदी कानून लागू करने को बाध्य हो रही है, वहीं दूसरी ओर शराबबंदी के लिए जिम्मेदार अमला और नशे के व्यापारी अवैध कमाई के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे |

जहाँ एक ओर शरीर को बीमार करने जैसा वैश्विक षड्यंत्र अपरोक्षत: चल रहा हो वहीं दूसरी ओर मानसिक रूप से भी उत्तेजित और अविवेकी गुलाम बनाने की दिशा में जीवनस्तर सुधारने के आईने में दिखनेवाले चमक-दमक के नेपथ्य में कर्ज के बोझ तले आर्थिक गुलामी को बाध्य होते हर हिंदुस्तानी। इसके तहत अच्छी शिक्षा के नाम पर निजी स्कूलों द्वारा आर्थिक शोषण के शिकार से शायद ही कोई बचा हो। चाहे वह गरीब- मजदूर ही क्यों न हो। क्योंकि हर कोई अपनी हैसियत दूसरों के नजरों से आंकने की तमन्ना पाले जो बैठा हैं। चाहे पुरखों की सम्पत्ति गिरवीं रखकर या बेचकर ही क्यों दिखनी पड़े अपनी हैसियत | ऐसे लाखों कडोरों युवावर्ग पाँव में डिग्रियों की बेड़ियाँ और हाथों में हथकड़ियों के साथ बेबसी की तड़प में तड़पते मिल जाएंगे। कुछ ने तो महाविद्यालयों , विश्विद्यालयों को अड्डाबनाकर नेतागिरी और स्वार्थगत  राजनीतिक पोषक के पर्याय बन चुके हैं। बात तो बहुत दूर तलक जाती है जब स्वयं सत्ता भी नशे के व्यापार में शरीक होने लग तो कहना ही क्या ? जैसे सोने पे सुहागा। ठीक इसके विपरीत  एक तो करैला यूँ ही तीता ऊपर से नीम  चढा। एक तो जवानी के उफान दूसरे अवसादग्रस्त यौवन से अर्धविकसित मन।

यह तो हुई चर्चा देश की दशा के। जब शारीरिक और मानसिक दशा विकृत हो तो फिर दिशा भी स्वयं अनिर्णीत और भ्रामक होगी ही।

देश के बहुसंख्यक आवादी आर्थिक बोझ तले मानसिक दृष्टि से भी गुलाम हो चुका है। बेशक, खुद को आजाद कहकर सन्तुष्ट हो ले मगर, रहेगा ही असुरक्षित गुलाम ही | एक अर्थोपादक इकाई के रूप में स्रोत भर ही। इससे अधिक और कुछ नहीं।

बैंकों और स्थानीय दबंग साहूकारों से कर्ज लेकर डिग्रियाँ तो बटोर ली पर,  नौकरी की कोई गारन्टी तो नहीं मिली । नियोक्ता की मर्जी जब चाहे नौकरी से मुअत्तल कर दे। नौकरी में रहते तो औकात से अधिक तो स्टेटस सिम्बल बनाने और दिखाने में कर्ज तले तो दब ही रहा था और अचानक मुअत्तली के लटकते नँगे तलवार जिसके सिर लटके उसकी मनोदशा की तो कल्पना ही की जा सकती है। इसी उहापोह की स्थिति में गाँव भी जाकर मजदूरी नहीं कर सकता क्योंकि लोग क्या कहेंगे। गाँव के लोगों की नजरों में तो शहर का बडा आदमी बन गया है रामखेलावन का बेटा।  क्योंकि जवान से बूढ़े हुए पिता ने पूरे गांव ही नहीं रिश्ते-नातों को जो उसे बड़ा आदमी बता रखा है कि उनका गुड्डू शहर में ऊंची नौकरी करता है, साहब है, अच्छा कमाता है, अच्छा खाता है आदि आदि। इससे तो अच्छा है कि शहर में बेशक, रिक्शा ही क्यों न चलानी पड़े, मजदूरी ही क्यों न करनी पड़े या फिर अपराधिक गतिविधियों में ही क्यों न शामिल होना पड़े | यह भी एक मुख्य कारण है शहर से जो गाँव जाते हैं तो महीनों से इकट्ठे किये धन का उपयोग दिखावा में ही खर्च करते हैं। जिनके छोटे-छोटे बच्चों से भी अंग्रेजी के दो चार शब्द अंग्रेजी के सुनवाकर अपनी छवि में चार चाँद लगाने की परम्परा सी चल पड़ी है | यानी कि बचपन से ग्रहस्थ्य जीवन और बुढापा पर्यन्त आदमी चिंताग्रस्त और तनावग्रस्त अस्ताचल मृत्यु को प्राप्त होता है।

यही दशा और वर्तमान दिशा है देश की मानवता के आर्थिक शोषण की कथा-व्यथा। वर्तमान चुनौतियों से जूझती जनता को, चाहे जिस किसी क्षेत्र में कार्यरत हो देश की अगली पीढ़ी को स्वस्थ निरोगी और शिक्षित स्वाभिमानी भारत के निर्माण में निष्ठापूर्वक एक अहम भूमिका निभानी है तो आधुनिक शिक्षा के साथ अनुशासनयुक्त नैतिक शिक्षा के प्रति जागरूक होना होगा। साथ ही आमानवीय आधुनिक चिकित्सा प्रणाली पर निर्भरता घटाने के निमित्त रसायनिक खाद से परहेज करते हुए स्वास्थकर भोजन की ओर भी सजग और सचेत रहना होगा।

दुर्भाग्यवश, जिस आजादी के लिए हमारे शहीदों ने भरी जवानी में शहादत दी थी उनके सपनों को साकार करने की बात तो दूर की कौड़ी, शहीदों को ही भुला बैठे और पुनः गुलामी की गोद में जा बैठे या फिर बैठने को उतावले हैं। आजादी के नाम पर मानवता की बलि और उन्मत्तता से आर्थिक गुलामी के शिकार हो रहे हैं।

आजादी के पहले के भारत में सामाजिक मूल्यों के साथ अनुशासित सौहार्द्रपूर्ण जीवन गुजर-बसर करता मानव और आजादी के बाद सुविधापूर्ण जीवन से ग्रस्त, मानसिक, आर्थिक गुलामी में रोगग्रस्त गुजर-बसर करता बेबस मानव आजाद भारत का नायाब नमूना पेश कर रहा है |

स्नेही “श्याम”

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श्याम स्नेही

श्री श्याम "स्नेही" हिंदी के कई सम्मानों से विभुषित हो चुके हैं| हरियाणा हिंदी सेवी सम्मान और फणीश्वर नाथ रेणु सम्मान के अलावे और भी कई सम्मानों के अलावे देश के कई प्रतिष्ठित मंचों पर अपनी प्रस्तुति से प्रतिष्ठा अर्जित की है अध्यात्म, राष्ट्र प्रेम और वर्तमान राजनीतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों पर इनकी पैनी नजर से लेख और कई कविताएँ प्रकाशित हो चुकी है | 502/से-10ए, गुरुग्राम, हरियाणा। 9990745436 ईमेल[email protected]