नादान
एक वो दिन थे ,
जब समझदार होने के लिए ,
हम हो रहे थे बड़े ।
तब क्लास में किसी का परांठा ,
चुरा कर खाना ,
स्कूल न जाने के लिए ,
वो पेट दर्द का बहाना ,
खेल में हार जाने पर ,
मुंह फुला लेना ,
तितली ,कंचे ,पतंग ,
कार्टून की वो दीवानगी ,
ये सब हमारी नादानियाँ ,
कही जाती थीं ।
तब उम्मीद थी हमसे की ,
इस नादान समय को पीछे छोड़ ,
हम हो जाएंगे समझदार !
आज समझदारियों के तेल से ,
जगमगा चुके हैं अक्ल के चिराग !
तो फिर ये दिल क्यों दुबारा —
वही नादानियाँ करने को ,
नादान बनने को मचलता है ।I
— डॉ संगीता गांधी