कविता

नादान

एक वो दिन थे ,
जब समझदार होने के लिए ,
हम हो रहे थे  बड़े ।
तब क्लास में किसी का परांठा ,
चुरा कर  खाना ,
स्कूल न जाने के लिए ,
वो पेट दर्द का बहाना ,
खेल में हार जाने पर ,
मुंह फुला  लेना ,
तितली ,कंचे ,पतंग ,
कार्टून की वो दीवानगी ,
ये सब हमारी नादानियाँ ,
कही जाती थीं ।
तब उम्मीद थी हमसे की ,
इस नादान समय को पीछे छोड़ ,
हम हो  जाएंगे समझदार !
आज समझदारियों के तेल से ,
जगमगा चुके हैं अक्ल के चिराग !
तो फिर ये दिल क्यों दुबारा —
वही नादानियाँ करने को ,
नादान बनने को मचलता है ।I

— डॉ संगीता गांधी

डॉ. संगीता गाँधी

शिक्षिका व लेखिका । प्रयास ,लोकजंग ,वर्तमान अंकुर ,समाज्ञा ,ट्रू टाइम्स ,झांब ,वुमेन एक्सप्रेस ,अनुभव आदि पत्र पत्रिकाओं व हिंदी निकुंज ,प्रतिलिपि, साहित्य पिडिया ,कथानकन , लिटरेचर पॉइंट ,स्टोरी मिरर आदि वेबसाइट पर रचनाएँ प्रकाशित । Wz 76 फर्स्ट फ्लोर ,लेन 4 ,शिव नगर ,नई दिल्ली 58 ईमेल -rozybeta@gmail.com