विस्मृत गांव
कहाँ खो गया वो स्वप्न सरीखा ,
सुंदर ,सलोना गांव अनोखा ।
भ्रातृत्व का खुलता था जहां ,
स्नेह ,अपनत्व पूर्ण झरोखा ।
चाचा ,काका ,बुआ ,काकी ,
प्रेम रस संचित रिश्तों की झांकी ।
सदा बहती थी मधुर बयार ,
सौंधी मिट्टी की सुगंध थी बाकी ।
वो खुली खुली सुबह का जगना ,
पंछी कलरव का मधुर चहकना ।
चौपाल पे बतियाते वृद्धों का झुरमुट ,
गौ दुग्ध ,माखन खुशबू का महकना ।
न कोई जल्दी न आपा धापी ,
चहुँ ओर मनोरम शांत मस्ती ,
वो चारपाई पर सुख की नींद ,
हुए विस्मृत अब ग्राम के लोकगीत ।
अब शहर के दड़बे नुमा घर में ,
दौड़ते जीवन के कोलाहल में ।
अनजान अकेले जीवन के तन्तु ,
ढूंढते वो गीत, गंधाते रिश्तों में ।
— डॉ संगीता गांधी