रोजा और उपवास का स्वास्थ्य पर प्रभाव
उपवास अर्थात् किसी भी रूप में कुछ समय तक निराहार रहना लगभग सभी सम्प्रदायों-मजहबों की परम्पराओं का अंग है। इसके धार्मिक और आध्यात्मिक प्रभाव भी होते हैं। लेकिन यहाँ हम केवल शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर इनके प्रभावों की चर्चा करेंगे।
प्राकृतिक चिकित्सा में उपवास को सभी रोगों का रामवाण उपचार माना जाता है। जब अन्य सभी उपचार असफल या निष्फल हो जाते हैं, तब अन्तिम अस्त्र के रूप में उपवास को अपनाया जाता है। लेकिन धार्मिक परम्परा के रूप में किये जाने वाले व्रत-उपवास इससे बहुत भिन्न होते हैं। वस्तुतः उनको उपवास कहा भी नहीं जा सकता। वे इसके अधिक सरल रूप फलाहार से अधिक मिलते जुलते हैं, जैसा कि हिन्दू एकादशी, राम नवमी, कृष्ण जन्माष्टमी के दिन रखते हैं।
परन्तु जिस तरह से यह फलाहार किया जाता है, वह स्वास्थ्य की दृष्टि से अधिक लाभकारी नहीं होता, क्योंकि इसमें लोग देर शाम तक भूखे रहते हैं और फिर फलाहार के नाम पर मिठाइयों तथा तरह-तरह के पकवानों का आहार कर लेते हैं। यदि इसकी जगह वे केवल प्राकृतिक फल खाकर रहें तो उनको उपवास का लाभ भी मिल सकता है, परन्तु प्रायः ऐसा नहीं होता।
मुसलमानों द्वारा रखा जाने वाला रोजा इससे भी अधिक कठिन होता है। वे सुबह 4-5 बजे उठकर पेट भर कर खा लेते हैं, फिर दिन भर पानी भी नहीं पीते और शाम को फिर पेट भरकर सभी तरह की वस्तुएं खा लेते हैं। अधिकांश रोजेदार तो रात्रि को सोने से पहले फिर छककर खाना खाते हैं। कहने का तात्पर्य है कि वे 24 घंटों में तीन बार पेट भरकर सभी प्रकार की वस्तुएँ खा लेते हैं, जिनमें माँसाहार भी शामिल हो सकता है। वे केवल दिनभर प्यासे रहते हैं। यह सब एक दो दिन नहीं बल्कि पूरे तीस दिन चलता है।
इस प्रकार के रोजे रखना स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक है, क्योंकि इससे उपवास का तो कोई लाभ मिलता ही नहीं है, दिन में पानी भी न पीने से शरीर में जल तत्व की कमी हो जाती है, जिससे अनेक रोग उत्पन्न होते हैं। यही कारण है कि अस्पतालों में आने वाले रोगियों में मुसलमानों का अनुपात उनकी जनसंख्या के अनुपात से कहीं अधिक होता है।
एक बात यह भी है कि हिन्दुओं में कोई भी व्रत-उपवास करना किसी के लिए भी बाध्यकारी नहीं होता। यह व्यक्ति विशेष की इच्छा पर है कि वह व्रत करे या न करे। लेकिन मुसलमानों में रोजे रखना सबके लिए अनिवार्य होता है। केवल बहुत छोटे बच्चों और बीमारों को इससे छूट मिलती है।
उपवास और रोजों का एक लाभ अवश्य है कि भूख प्यास सहन करने से मानसिक मजबूती मिलती है। लेकिन उसी अनुपात में उनका अपने सम्प्रदाय या मजहब के प्रति विश्वास अर्थात् कट्टरता बढ़ जाती है। हिन्दुओं में व्रत प्रायः एक-दो दिन के होते हैं, नवरात्रियों में लगातार 9 दिन के भी होते हैं, परन्तु मुसलमानों में रमजान के रोजे पूरे 30 दिन चलते हैं। इसलिए उनमें कट्टरता अधिक होती है।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि वर्तमान में व्रत और रोजे जिस तरह किये जाते हैं उससे उनका स्वास्थ्य पर सकारात्मक प्रभाव कम और नकारात्मक प्रभाव अधिक होता है।
— विजय कुमार सिंघल
ज्येष्ठ शु 9, सं 2074 वि (3 जून 2017)